पृष्ठ:राजा और प्रजा.pdf/१०५

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
राजा और प्रजा।
९४

यदि समाचारपत्रोंकी स्वाधीनताका यह परदा उठा दिया जाय तो हम लोगोंकी पराधीनताका सारा कठिन कंकाल क्षण भरमें बाहर निकल पड़े। आजकलके कुछ जबरदस्त अँगरेज लेखक कहते हैं कि जो बात सत्य है उसका प्रकट हो जाना ही अच्छा है। लेकिन हम पूछते हैं कि क्या अँगरेजी शासनका यह कठिन और शुष्क पराधीनताका कंकाल मात्र ही सत्य है? और इसके ऊपर जीवनके लावण्यका जो परदा था और स्वाधीन गतिकी विचित्र लीलाकी जो मनोहर श्री दिखलाई गई थी क्या वही मिथ्या और माया थी? दो सौ वर्षके परिचयके उपरान्त क्या हम लोगोंके मानव-सम्बन्धका यही अवशेष है?