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राजा और प्रजा।
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जैसे महान् मानव-व्यापारमें हृदयके प्रत्यक्ष आविर्भावको मूर्तिमान न देखकर किस प्रकार जीवित रहेगा ? जहाँ आत्माका आत्मीयसे सम्बन्ध हो, केवल वहीं सिर झुकानेमें सुख मिलता है, जहाँ ऐसा सम्बन्ध न हो वहाँ नमस्कार करनेमें अपमान और कष्ट जान पड़ता है। अतएव राज्यव्यवस्थामें यदि हम देवताकी शक्तिको, मंगलके प्रत्यक्ष स्वरूपको राजरूपमें देख सकें तो शासनका भारी भार सहजमें वह्न कर सकते हैं । यदि इसके प्रतिकूल हो तो हृदय प्रतिक्षण भग्न होता रहता है। हम पूजा करना चाहते हैं--राज्यव्यवस्थामें प्राणप्रतिष्ठा कर उसके साथ अपने प्राणोंका मिलाप अनुभव करना चाहते हैं—हम बलको निरा बल जानकर ही सहन नहीं कर सकते ।

अतएव यह बात सत्य है कि भारतवर्षकी राजभक्ति प्रकृतिगत है। परन्तु इसी कारण राजा उसके लिये तमाशा भरका राजा नहीं है वह राजाको एक अनावश्यक आडम्बरका अंग मानकर देखना नहीं चाहता । राजाके दर्शन पानेमें उसे जितनी ही देर लगेगी, उतनी ही उसकी पीड़ा बढ़ती जायगी। क्षणस्थायी अनेक राजाओंके दुस्सह भारसे यह वृहत् देश किस प्रकार मर्मपीड़ा अनुभव कर रहा है, किस प्रकार प्रतिदिन अपने आपको उपायहीन जानकर लम्बी साँसें भर रहा है, इसे एक उस अन्तर्यामीके सिवा और कौन देखता है ? जो पथिक मात्र हैं, जिनके मनमें सदा यही बना रहता है कि कब छुट्टी मिल, जो पेटके कारण निर्वासित बनकर दिन काट रहे हैं, जो उजरत लेकर इस शासन-कारखानेकी कल घुमाते रहते हैं, जिनके साथ हमारा कोई सामाजिक सम्बन्ध नहीं है, और जो निरन्तर बदलते रहते हैं उन उपेक्षापरायण शासकोंका हृदय-सम्पर्क-शून्य शासन वहन करना कितना दुस्सह है, इसे केवल भारतवर्ष ही