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अँगरेज और भारतवासी।


उसको इस बातका कोई ध्यान नहीं रहता कि उसके कड़े बूटके तलेसे बहुतसी फसल नष्ट-भ्रष्ट भी हो जाती है।

हम लोग सब प्रकारके शत्रुओंके उपद्रवोंसे रक्षित हैं। विपत्तिकी हम लोगोंको कोई आशंका नहीं है। केवल हमारी छाती पर अकस्मात् वह बूट आ पड़ता है। हम लोगोंको तो उससे वेदना होती ही है पर यह बात नहीं है कि उससे उस बूट पहनकर चलनेवालेकी कोई हानि न होती हो। लेकिन अँगरेज सब स्थानों पर अँगरेज ही हैं; वे कहीं अपना बूट उतारकर जाने आनेके लिये तैयार नहीं हैं।

आयर्लेण्डके साथ अँगरेजोंका जो झगड़ा खड़ा हुआ है, हमारे लिये उसका जिक्र करनेकी कोई आवश्यकता नहीं है। अधीन भारतवर्षमें भी यह बात देखी जाती है कि अँगरेजोंके साथ अँगरेजी शिक्षितोंकी अनबन धीरे धीरे होती ही जा रही है। छोटेसे छोटा अवसर पाकर भी दोनों से कोई दूसरेको छोड़ना नहीं चाहता। ईटके बदलेमें पत्थर मारा जा रहा है।

यह बात नहीं है, कि हम लोग सभी अवसरों पर सुविचारपूर्वक पत्थर फेंकते हों। अधिकांश अवसरों पर हम लोग अंधकारमें ही ढेला मारते हैं। यह बात अस्वीकृत नहीं की जा सकती कि हम लोग अपने समाचारपत्रों आदिमें अनेक अवसरों पर अन्यायपूर्ण ही झगड़ा करते हैं और बिना जड़का टंटा-बखेड़ा खड़ा कर लेते हैं।

लेकिन इन सब बातोंका स्वतंत्र रूपसे विचार करनेकी आवश्यकता नहीं है। उनमेंसे कोई बात सत्य और कोई झूठ, कोई न्याययुक्त और कोई अन्याययुक्त हो सकती है। वास्तविक विचारणीय विषय यह है कि आजकल इस प्रकार ईटें और पत्थर चलानेकी प्रवृति