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राजभक्ति।
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जानता है। राजभक्तिसे दीक्षित भारतवर्षका अन्तःकरण कातर- भावसे प्रार्थना करता है."हे भारतकी ओरसे विमुख भगवन् ! मैं अब इन क्षणिक राजाओं, क्षुद्र राजाओं और अनेक राजाओंको एक क्षण भी सहन नहीं कर सकता, मुझे एक राजा दो ! ऐसा राजा दो जिसके मुखसे मैं सुन सकूँ—'भारतवर्ष हमारा राज्य है, वणि- कोंका राज्य नहीं है, खानवालोंका राज्य नहीं है, चाकरोंका राज्य नहीं है, लंकाशायरका राज्य नहीं है, हमारा राज्य है। भारतवर्षका अंत:करण जिसको देखकर बोल उठे—'यही हमारे राजा हैं। हालिडे हमारे राजा नहीं हैं, फुलर हमारे राजा नहीं हैं, पायोनियर-सम्पादक हमारे राजा नहीं हैं' ।" राजकुमार यहाँ आवें, यहीं उनका राज्याभिषेक और यहीं उनका स्थायी दरबार हो; फिर स्वभावतः ही उनकी दृष्टि में भारत ही मुख्य और इंग्लैण्ड गौण हो जायगा । इससे भारतका मंगल और इंग्लैण्डका स्थायी लाभ होगा । क्योंकि मनुष्यसे हृदयका सम्पर्क या सामाजिक सम्बन्ध न रखकर केवल यंत्रोंकी सहायतासे उसका शासन करनेकी उच्चाकांक्षा धर्मराज्य कदापि अधिक दिनोंतक सहन नहीं कर सकता, इसका सहन करना स्वभावविरुद्ध है; विश्वविधानमें बाधा डालनेवाला है। अतएव सुशासन, शान्ति अथवा और कोई पदार्थ हृदयके इस दारुण अभावको पूर्ण नहीं कर सकता। हो सकता है कि यह बात कानूनके विरुद्ध समझ ली जाय; पुलीस-सर्प इसे सुनकर फन फैला दे और फुफकारें छोड़ने लगे; परन्तु जो क्षुधित सत्य तीस करोड़ प्रजाके मर्ममें हाहाकार कर रहा है उसको बलपूर्वक नष्ट कर देनेका उपाय मानव या दानव किसीके पास नहीं है ।

भारतवर्षीय प्रजाके इस प्रतिक्षण पीड़ा बोध करनेवाले हृदयको थोड़ा बहुत ढारस बँधानेहीके लिये राजकुमारको बुलाया गया था;

रा°९