हम सबको दिखाया गया था कि हम भी राजावाले हैं हमारे भी
राजा हैं। पर मरीचिकासे कहीं सच्ची प्यास जाती है ?
सच तो यह है कि हम राजशक्तिको नहीं, राजहृदयको प्रत्यक्ष अनुभव करना और प्रत्यक्ष राजाको अपना हृदय अर्पित करना चाहते हैं । प्रभुगण ! आप यह बात कभी मत सोचिए कि धन और प्राणोंका रक्षित रहना ही प्रजाकी चरम चरितार्थता है। इसीसे आप कहते हैं कि ये शान्तिमें तो शराबोर हो रहे हैं, अब इन्हें और क्या चाहिए ? आप समझें कि जब हृदयके द्वारा मनुष्यके हृदयपर अधिकार कर लिया जाता है तब वह मनुष्य खुशी खुशी अपने धन और प्राणको निछा- वर कर देता है। भारतवर्षका इतिहास इसका प्रमाण है। मनुष्य केवल शान्ति ही नहीं बल्कि तृप्ति भी चाहता है। देव हमारे कितना ही प्रतिकूल क्यों न हो, हम भी मनुष्य हैं। हम लोगोंकी भूख मिटा- नेके लिये सच्चे अन्नकी ही आवश्यकता होगी- हमारा हृदय फुलर, प्यूनिटिव पुलीस और जोर-जुल्मोंके द्वारा वश नहीं किया जा सकता।
देव हो या मानव, लाट हो या जैक, जहाँ केवल प्रतापका प्रकाश है, केवल बलका बाहुल्य है, वहाँ डरकर सिर झुकानेके समान और कोई आत्माबमान, अन्तर्यामी ईस्वरका अपमान, नहीं हो सकता । भारतवर्ष, तुम वहाँ अपने चिर दिनके अर्जित और सञ्चित ब्रह्मज्ञानकी सहायतासे इन सारी लांछनाओंके सामने अपना मस्तक अविचलित रखना, इन बड़े बड़े नामवाले असत्योंको सर्वान्तःकरणसे अस्वीकार करना; जिसमें ये विभीषिकाओंका रूप धारण करके तुम्हारी अन्तरा- त्माको तनिक भी संकुचित न कर सकें । तुम्हारी आत्माकी दिव्यता, उज्ज्वलता और परमशक्तिमत्ताके आगे ये सारे तर्जन-गर्जन, यह सारा उच्च पदका घमंड, यह सारा शासन-शोषणका आयोजन, आडम्बर, तुच्छ बाललीला मात्र हैं; ये तुम्हें पीड़ा भले ही दे लें,