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पृष्ठ:राजा और प्रजा.pdf/१४६

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बहुराजकता।
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उस समय सम्राट् भी कहते-" बेशक, अपने साम्राज्यसे खास अपने भोगके लिये हम जो कुछ लें वह तो ठीक है, पर यह देखकर यदि सभी ऐरे गैरे पत्तले बिछा बिछाकर बैठ जायें तो कैसे काम चलेगा ?"

उस समय वे भारतको अपना राज्य समझकर उसके दुःखसे दुःखी होते और पराए मनुष्योंके लोभ-प्रेरित हाथोंको उधर ही पकड़- कर रोक रखते। पर आज प्रत्येक अँगरेज भारतवर्षको अपना राज्य समझता है । इस राज्यसे उन्हें मिलनेवाली भोग-वस्तुओंकी मात्रामें जब जरा भी कमी होती है तब वे सब मिलकर ऐसा शोर मचाते हैं कि उनके देशका कोई कानून बनानेवाला इस व्यवस्थामें कोई परि- वर्तन करने ही नहीं पाता ।

यह बात जरा सा सोचनेसे ही समझ ली जा सकती है कि अपने इस हजारों मुखवाले राजाकी पत्तल से कुछ पानेके लिये उसीके दरबारमें फरियाद करना व्यर्थ है।

सारांश यह है कि एक समस्त जातिका अपने ही देशमें रहते हुए दूसरे देशका शासन करना अभूतपूर्व घटना है। राजा कितना ही उत्तम क्यों न हो, इस परिस्थितिमें उसका बोझ उठाए रहना देशके लिये अत्यन्त कठिन है । जिस देशको मुख्य रूपसे दूसरे देशके लाभा- लाभका और गौण रूपसे अपने देशके लाभालाभका एक ही साथ विचार रखना पड़े उसकी अवस्था अत्यन्त शोचनीय होती है। जिस देशका भारकेन्द्र उसके अपने शरीरसे इतना विलग हो, वह क्यों कर खड़ा रह सकता है ? यह सच है कि इस देशसे चोरी डकैतियाँ उठ गई, यह भी सच है कि अदालतें विचार करनेमें बालकी खाल उतार डालती हैं, पर बोझ उतारनेकी भी कोई जगह है ?