अधिक आवश्यक होता है । असत्य और अर्द्धसत्य और समयोंमें हमारा
उतना भारी अनिष्ट नहीं करते. पर संकटके समयमें इनके समान
हमारा शत्रु और कोई नहीं होता।
अतएव ईश्वर करे कि आज हम भयसे, क्रोधसे, आकस्मिक आप- त्तिसे, अथवा दुर्बल चित्तके अतिशय विक्षेपसे आत्मविस्मृत होकर अपने आपको या दूसरोंको भुलानेके लिये कतिपय निरर्थक वाक्योंका बवंडर उत्पन्न करके चारों ओरके अस्वच्छ वातावरणको और भी गैंदला न कर डालें। तीव्र वाक्योंसे चञ्चलताकी वृद्धि होती है, और भयसे सत्यको किसी प्रकार दबा रखनेकी प्रवृत्ति पैदा होती है। अत- एव यदि आजकेसे समयमें हम मनोवेगोंको प्रकट करनेकी उत्तेजना रोककर यथासम्भव शान्त भावसे प्रस्तुत घटनापर विचार नहीं करेंगे, सत्यका आविष्कार और प्रचार नहीं करेंगे तो हमारी आलोचना केवल व्यर्थ ही न होगी बल्कि अनिष्टकर भी होगी ।
हम दीनावस्थामें हैं इसीसे प्रस्तुत घटनाको देखकर आवश्यकतासे अधिक व्यग्रता और आतुरताके साथ आगे बढ़कर कहने लगते हैं, "हम इसमें सम्मिलित नहीं हैं, यह केवल अमुक दलकी कीर्ति है; यह अमुक दलवालोंका अन्याय है। हम पहलेहीसे कहते आ रहे हैं कि यह सब अच्छा नहीं हो रहा है। हम तो जानते ही थे कि कोई ऐसी घटना घटेगी।" आदि आदि ।
किसी आतंकजनक दुर्घटनाके पश्चात् ऐसी अप्रशस्त उत्सुकताके साथ दूसरोंपर दोषारोपण या अपनी सुबुद्धिपर अभिमान प्रकट करना हमारी दुर्बलताकी सूचना है, यही नहीं बल्कि यह हमारे लिये लज्जाका भी कारण है । खास कर अपनी पराधीनताके कारण राजपुरुषोंके रोषकालमें दसरोंको गालियाँ देकर अपने आपको भला मानस सिद्ध