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पृष्ठ:राजा और प्रजा.pdf/१५८

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पथ और पाथेय।
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तब तक सन्देहके साथ सन्देहका, विद्वेषके साथ विद्वेषका और कपट- नीतिके साथ कपटनीतिका संग्राम होता रहता है जिससे सारा मानव- समाज उत्तप्त रहता है

अतएव वर्तमान अवस्थामें देशके उत्तेजित व्यक्तियोंसे यदि कुछ कहनेकी आवश्यकता हो तो वह कामकी बातके सम्बन्धमें ही हो सकती है। उन्हें यह बात अच्छी तरह समझा देनी होगी कि प्रयोजन चाहे जितना महत्त्वपूर्ण हो, चौड़े मार्गसे जाकर ही उसका साधन करना होगा; शीघ्र सिद्धिलाभके लिये संकीर्ण मार्गका अबलम्बन करनेसे किसी न किसी दिन रास्ता भूल जाना निश्चित है--रास्ता भी भूल जायगा और कार्य भी नष्ट हो जायगा । हमें अपना काम कर डाल- नेकी बहुत जल्दी है: यह सोचकर न तो रास्ता ही छोटा होने जायगा और न समय ही अपना शरीर संकुचित करना स्वीकार करेगा ।

देशका हितानुष्ठान कितना व्यापक पदार्थ है और कितनी दिशा- ओंमें उसकी कितनी सहस्र शाखा-प्रशाखाएँ फैली हुई हैं, यह बात हमें किसी सामयिक आक्षेपके फेरमें पड़कर भूल न जानी चाहिए। भारतवर्ष सरीखे विविध वैचित्र्य और विरोधोंसे पूर्ण देशमें यह समस्या अत्यन्त ही जटिल है । ईश्वरने हम लोगोंपर एक ऐसे महान कार्यका भार डाल रक्खा है, हम लोग मानव समाजके इतने बड़े जटिलजालकी हजारों लाखों गुत्थियाँ सुलझानेका आदेश लेकर आए हुए हैं कि हमें एक पलके लिये भी अपने कर्तव्यके गुरुत्वको भूलकर किसी प्रका- रकी चंचलता प्रकट करना उचित नहीं है। आदिकालसे जगतमें जितनी बड़ी बड़ी शक्ति-धाराएँ उद्गत और प्रवाहित हुई हैं उनकी किसी न किसी शाखाने भारतवर्षसे अवश्य सङ्गम किया है। ऐति- हासिक स्मृतिके अतीतकालमें किसी गूढ़ प्रयोजनकी अनिवार्य प्रेरणासे