हमें जगानेका प्रयत्न कर रही है। इस भारतवर्षमें बौद्ध धर्मकी बाढ़
हट जाने पर जब खण्ड खण्ड देशके खण्ड खण्ड धर्म-सम्प्रदायोंने
विरोध और विच्छिन्नताके काँटे सब ओर बिछा रक्खे थे उस समय
शंकराचार्य्यने उस सारी खण्डता और क्षुद्रताको एक मात्र अखण्ड बृहत्त्वमें
ऐक्यबद्ध करनेकी चेष्टा कर भारतहीकी प्रतिभाका परिचय दिया था।
अन्तिम कालमें दार्शनिक ज्ञानप्रधान साधना जब भारतमें ज्ञानी अज्ञानी;
अधिकारी अनधिकारीका भेदभाव उत्पन्न करने लगी तब चैतन्य,
नानक, दादू, कबीर आदिने भारतके भिन्न भिन्न प्रदेशोंमें जाति और
शास्त्रके अनैक्यको भक्तिके परम ऐक्यमें एक करनेवाले अमृतकी वर्षा
की थी। केवल प्रादेशिक धम्मकि विभिन्नतारूपी धावको प्रेमके मल-
हमसे भर देनेहीका उन्होंने उद्योग नहीं किया बल्कि, हिन्दू और
मुसलमान प्रकृति के बीच धर्मका पुल बाँधनेका काम भी ये करते थे।
इस समय भी भारत निश्चेष्ट नहीं हो गया है--राममोहनराय, स्वामी
दयानन्द, केशवचन्द्रसेन, रामकृष्ण परमहंस, विवेकानन्द, शिवनारा-
यणस्वामी आदिने भी अनैक्यके बीचमें ऐक्यको, क्षुद्रताके बीचमै मह-
त्वको प्रतिष्ठित करनेके लिये अपने जीवनकी साधनाओंको भारतके
चरणोंमें भेंट कर दिया है। अतीत कालसे आजतक भारतवर्गके एक
एक अध्याय इतिहासके विच्छिन्न विक्षिप्त प्रलाप मात्र नहीं हैं, ये पर-
स्पर बँधे हुए हैं, इनमेंसे एक भी स्वप्नकी तरह अन्तर्द्वान नहीं हुए,
ये सभी विद्यमान हैं। चाहे सन्धिसे हो या संग्रामसे, घातप्रतिघात
द्वारा ये विधाताके अभिप्रायकी अपूर्व रूपसे रचना कर रहे हैं--
उसकी पूर्तिके साधन बना रहे हैं। पृथ्वीपर विद्यमान और किसी
देशमें इतनी बड़ी रचनाका आयोजन नहीं हुआ—इतनी जातियाँ,
इतने धर्म, इतनी शक्तियों किसी भी तीर्थस्थलमें एकत्र नहीं हुई। अत्यन्त
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पथ और पाथेय।
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