जिस भारतवर्षने सम्पूर्ण मानव महाशक्तियोंके द्वारा स्वयं क्रमशः
ऐसा विराट रूप धारण किया है, समस्त आघात, अपमान, समस्त
वेदनाएँ जिस भारतवर्षको इस परम प्रकाशकी ओर अग्रसर कर रही
हैं उस महा भारतवर्षकी सेवा बुद्धि और अन्तःकरणके योगसे हममेंसे
कौन करेंगा ? एकरस और अविचलित भक्तिके साथ सम्पूर्ण क्षोभ,
अधैर्य और अहंकारको इस महासाधनामें विलीनकर भारतविधाताके
पदतलमें पूजाके अर्यकी भाँति अपने निर्मल जीवनको कौन निवेदन
करेगा ? भारतके महा जातीय उद्बोधनके वे हमारे पुरोहित आज कहाँ
हैं ? वे चाहे जहाँ हों, इस बातको आप ध्रुव सत्य समझिए कि वे
चञ्चल नहीं है, उन्मत्त नहीं हैं, वे कर्मनिर्देशशून्य महत्त्वाकाङ्क्षाके
वाक्यों द्वारा देशके व्यक्तियोंके मनोवेगको उत्तरोत्तर संक्रामक वायु-
रोगमें परिणत नहीं करा रहे हैं। निश्चय जानिए कि उनमें बुद्धि, हृदय
और कर्मनिष्टाका अत्यन्त असामान्य समावेश हुआ है, उनमें गम्भीर
शान्ति और धैर्य तथा इच्छाशक्तिका अपराजित वेग और अध्यवसाय
इन दोनोंका महत्त्वपूर्ण सामन्जस्य है।
परन्तु जब हम देखते हैं कि किसी विशेष घटना द्वारा उत्पन्न उत्तेजनाकी ताड़नासे, किसी सामयिक विरोधसे क्षुब्ध होकर देशके अनेक व्यक्ति क्षणभर भी विचार न कर देशहित के लिये सरपट दौड़ने लगते हैं तब हमें कुछ भी सन्देह नहीं रहता कि केवल मनोवेगका राहखर्च लेकर वे दुर्गम मार्ग ते करनेके लिये निकल पड़े हैं। वे देशके सुदूर और सुविस्तीर्ण मंगलको शान्त भाव और यथार्थ रीतिसे सोच ही नहीं सकते। उपस्थित कष्ट ही उन्हें इतना असह्य मालूम होता है, उसीके प्रतिकारकी चिन्ता उनके चित्तपर इस तरह चढ़ जाती है कि उनकी जब्तकी दीवार बिलकुल ही टूट जाती है और अपने तात्का-