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पृष्ठ:राजा और प्रजा.pdf/१६७

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राजा और प्रजा।
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विघ्न समझकर उससे घृणा करता है और उपद्रव द्वारा उसकी साधना चंचल अतएव निष्फल करनेके लिये उठ खड़ा होता है । फलको पकने देना ही उसकी समझमें उदासीनता है; फलको जबरदस्ती डालसे अलग कर लेनेहीको वह पुरुषार्थ समझता है। मालीके प्रतिदिन वृक्षकी जड़ सींचते रहनेका कारण उसकी समझसे केवल यही है कि उसपर चढ़ जानेका साहस उसमें नहीं है । मालीकी इस कापुरुषतापर उसे क्रोध होता है, उसके कामको वह छोटा काम समझता है । उत्तेजित दशामें मनुष्य उत्तेजनाको ही संसारमें सबसे बड़ा सत्य मानता है, जहाँ वह नहीं होती वहाँ उसको कोई सार्थकता ही नहीं दिखाई पड़ती।

परन्तु स्फुलिंग और शिखामें, चिनगारी और लौमें जो भेद है, उत्ते- जना और शक्तिमें भी वही अन्तर है । चकमककी चिनगारियोंसे घरका अन्धकार दूर नहीं किया जा सकता । उसका आयोजन जिस प्रकार स्वल्प है, उसका प्रयोजन भी उसी प्रकार सामान्य है। चिरागका आयोजन अनेकविध है--उसके लिये आधार गढ़ना होता है, वत्ती बनानी पड़ती है, तेल डालना पड़ता है। जब यथार्थ मूल्य देकर ये सब खरीदे जाते हैं या परिश्रम करके स्वयं तैयार कर लिए जाते हैं, तभी आवश्यकता पड़ने पर स्फुलिङ्ग अपनेको स्थायी शिग्वामें परिणत करके घरको प्रकाशित कर सकता है । जहाँ यथेष्ट चेष्टा नहीं होती प्रदीपके उपयुक्त साधन निर्मित अथवा प्रस्तुत नहीं किए जाते, जहाँ लोग चकमकसे अनायास चिनगारियोंकी वर्षा होते देखकर आनन्दमें उन्मत्त हो जाते हैं, सत्यके अनुरोधसे स्वीकार करना पड़ेगा कि वहाँ घरमें रोशनी पैदा करनेकी इच्छा तो कभी सफल नहीं हो सकती, पर हाँ घरमें आग लग जाना सम्भव है।

पर शक्तिको सुलभ करनेके प्रयत्नमें मनुष्य उत्तेजनाका अवलम्बन करता है। उस समय वह यह भूल जाता है कि यह अस्वाभाविक