नवजाग्रत शक्तिका अभिमान जोर पकड़े हुए है। दोनोंका सामञ्जस्य
कैसे होगा ? धीरे धीरे ? क्रम क्रमसे ? बीचकी विशाल खाड़ीमें पत्थरका
पुल बाँधकर ? पर अभिमान विलम्ब नहीं सह सकता, मत्तता कहती है,
हमें सीढ़ी न चाहिए, हम उड़ेंगे! सुसाध्यका साधन तो सभी कर लेते
हैं, हम असाध्य कार्यका साधन कर जगत्को चमत्कृत कर देंगे-
यही कल्पना हमें उत्तेजित किए रहती है। इसका एक कारण है।
प्रेम जब जागता है तब वह शुरूसे ही सब कार्य करना चाहता
है, छोटा हो या बड़ा, वह किसीका तिरस्कार नहीं करता । कहीं कोई
कर्त्तव्य असमाप्त न रह जाय यह चिन्ता उसके चित्तसे कभी दूर
नहीं होती। प्रेम अपने आपको सार्थक करना चाहता है, अपनेको
प्रमाणित करनेके लिये वह परेशान नहीं होता। पर अपमानकी ठोकर
खाकर जागनेवाला आत्माभिमान छाती फुलाकर कहता है— हम
धीरे धीरे डगें रखते हुए नहीं चलेंगे, हम छलाँगें मारकर ही चलेंगे।
अर्थात् जो वस्तु संसारभरके लिये उपयोगी है, उसके लिये उसका कोई
प्रयोजन नहीं-धैर्यका प्रयोजन नहीं, अध्यवसायका प्रयोजन नहीं,
दूरवर्ती उद्देश्यको लक्ष्यकर देर में फल देनेवाले साधनोंका अवलम्बन
करनेका प्रयोजन नहीं । फल यह होता है कि कल जिस प्रकार दूसरे के
बलका अन्धभावसे भरोसा किए बैठे थे, आज उसी प्रकार अपने
बलपर हवाई किले तयार कर रहे हैं। उस समय यथाविहित कर्मसे
दूर भागनेकी चेष्टा थी, इस समय भी वही चेष्टा वर्तमान है । ईस-
पके किस्सेवाले किसानके आलसी बेटे, जबतक बाप जीवित था,
भूलकर भी खेतके पास नहीं फटके। बाप हल जोतता था और वे
उसकी कमाई निश्चिन्त होकर खाते थे। जब बाप मर गया तब वे
खेतके समीप जानेको बाध्य हुए-पर हल चलानेके लिये नहीं ।
रा०११