सजीव पदार्थ बहुत समय तक यांत्रिक भावसे एकत्र रहते रहते जैविक भावसे संयुक्त हो जाते हैं । भिन्न भिन्न जातिके दो वृक्षोंकी डालियोंका इसी रीतिसे कलम लगाया जाता है। किन्तु जबतक उनका निर्जीव संयोग सजीव संयोगमें बदल नहीं जाता तबतक उन्हें बाहरी बन्धनसे मुक्त कर देना ठीक नहीं होता । इसमें सन्देह नहीं कि रस्सीका बन्धन वृक्षका अपना अंग नहीं है और इसलिये वह चाहे जैसे लगाया गया हो और चाहे जितना उपकार करता हो, वृक्षको उससे पीड़ा अवश्य पहुँचेगी। पर यदि विभिन्नताको एक कलेवरमें बद्ध देखनेकी इच्छा हो तो यह पीड़ा स्वीकार न करनेसे काम न चलेगा। बन्धन आवश्य- कतासे अधिक कड़ा है, यह बात सत्य हो सकती है । पर इसका एक मात्र उपाय है अपनी सम्पूर्ण आभ्यन्तरिक शक्तियोंको लगाकर जोड़के मार्गसे एक दूसरेके रससे रस और प्राणसे प्राण मिलाकर जोड़को पक्का कर डालना । यह बात पूरे विश्वासके साथ कहीं जा सकती है कि जोड़ पक्का हो जानेपर, दोनों टहनियोंके एक जीव हो जानेपर, हमारा माली अवश्य ही हमारा बन्धन काट देगा। अँगरेजी शासन नामक बाहरी बन्धन स्वीकार करके, उसपर जड़ भाषसे निर्भर न रहकर हमें सेवाद्वारा, प्रीतिद्वारा, सम्पूर्ण कृत्रिम व्यवधानोंके नाशद्वारा विच्छिन्न भारतवर्षको सजीव बन्धनमें बाँधकर एक कर लेना होगा । एकत्र संघटनमूलक हजारों प्रकारके सृजनके काममें भौगो- लिक भूखण्डको स्वदेशके रूपमें गहना पड़ेगा और छिन्न भिन्न जनस- मूहको प्रयत्नद्वारा स्वजातिके आकारमें परिणत करना पड़ेगा।
सुनते हैं, किसी किसीका यह भी मत है कि अंगरेजोंके प्रति देशवासी सर्वसाधारणका विद्वेष ही हममें एकता उत्पन्न करेगा । प्राच्य जातियोंके प्रति अँगरेजोंकी स्वाभाविक निर्ममता, उदासीनता और