पृष्ठ:राजा और प्रजा.pdf/१८५

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।

समस्या।

'पथ और पाथेय' शीर्षक प्रबन्धमें हमने अपने कर्त्तव्य और उसकी साधन-प्रणालीके विषयमें आलोचना की थी। हम यह आशा नहीं करते कि उक्त प्रबन्धको सभी लोग अनुकूल दृष्टिसे देखेंगे ।

कौनसी बात श्रेय है और उसके लाभका श्रेष्ट उपाय क्या है इसके निश्चय करनेके शास्त्रार्थोका या तौका अन्त अवतक भी किसी देशमें नहीं हुआ। यह शास्त्रार्थ कितनी ही बार रक्तपातमें परिवर्तित हो चुका है और बार बार एक जगह विलुप्त और दूसरी जगह अंकुरित होता रहा है; मानव-इतिहास इसका प्रमाण है ।

हमारे देश में देशहितके सम्बन्धमें मतभेद अब तक केवल जवानी या समाचारपत्रोंमें, केवल छापेखानों या सभामण्डपोंमें वाक्युद्धको भाँति ही संचार करता रहा है । वह धुऍकी तरह फैला रहा है आगकी तरह जलता बलता नहीं रहा ।

पर आज सभी अपने मतागतको देशके हिताहितके साथ निकट भावसे जड़ित मान रहे हैं, उसे कान्यके अलंकारकी झंकार मात्र नहीं समझते । यही कारण है कि जिससे हमारा मत नहीं मिलता उसके प्रतिवाद वाक्योंमें यदि कभी कोई कटु और कठोर शब्द निकल जाता है तो हम उसे असंगत कहकर क्षोभ नहीं कर सकते। इस समय