मानेंगे कि शान्तरसाश्रित होनेके कारण ही एक वस्तुमें वास्तविक-
ताकी न्यूनता है और जिसकी वेगपूर्ण ताड़ना रास्ता पहचानने तकका
अवकाश नहीं देती है उसमें वास्तविकताका निवास यथेष्ट है।
'पथ और पाथेय' में हमने दो बातोंकी आलोचना की थी। पहली बात तो यह है कि भारतवर्षके विषयमें देशहितका कार्य कौन सा है-स्वदेशी कपड़े पहनना और अँगरेजोंको निकाल बाहर करना या और कुछ ? दूसरे यह कि इस हित-कार्यका साधन किस प्रकार होगा?
भारतवर्षका चरम हित क्या है इसके समझनेमें केवल हमारी ही ओरसे बाधा नहीं की जाती, वस्तुतः इसमें सबसे बड़ी बाधा अंगरे- जोका हम लोगों के साथ बर्त्ताव है । वे किसी प्रकार इस बातको मा- नना नहीं चाहते कि हमारा स्वभाव भी मानव-स्वभाव है। वे सोचते हैं कि जब हम राजा हैं तब किसी प्रकारकी जवाबदेही हमारे पास नहीं फटक सकती, उसके पात्र एक मात्र भारतवासी ही हैं। बंगा- लके एक भूतपूर्व हर्ताकर्ताको भारतवर्षकी चञ्चलता पर कड़ी टीका करनेकी आवश्यकता पड़ी थी। आपने सारे भारतवासियोंके लिये ही फतवा दे डाला, किसीको भी न छोड़ा। आपकी रायमें समस्त देशी अखबारों के गले घोंट देना और सुरेन्द्र, विपिन आदि समस्त नेता- ओंको पंगु और मूक कर देना ही इस रोगका एकमात्र उपचार जान पड़ा। देशमें शान्ति स्थापित करनेका यह नुस्खा जिनको अनायास ही सूझ सकता है और जो बिना तनिक भी सोचे विचारे उसको रोगीके गले मढ़ सकते हैं, ऐसे व्यक्ति हमारे हर्ताकर्ता बनाए जा रहे हैं; क्या देशका खून खौलानेका यह एक प्रधान कारण नहीं है ? क्या केवल इसी लिये कि अँगरेजोंके हाथोंमें बल है, मानव-स्वभावको मान कर चलना