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पृष्ठ:राजा और प्रजा.pdf/१९२

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समस्या।
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राजदण्डको विश्वविधानसे भी बढ़कर मानता है, तो इस भयंकर अन्ध- ताके कारण देशमें पापका पहाड़ अत्यन्त ऊँचा हो जायगा और एक न एक दिन यह घोरतर असामञ्जस्य भयंकर विप्लवमें परिणत हुए बिना न रहेगा । प्रतिदिन देशके अंत:करणमें जो वेदना सञ्चित हो रही है, आत्मप्रसादसे फूले हुए अँगरेज उसकी अत्यन्त उपेक्षा कर सकते हैं, मोर्ले उसकी अवज्ञा करनेहीको राजनीतिक बुद्धिमत्ता मान सकते हैं, इलियट उसे पराधीन जातिकी स्पर्द्धा मात्र मानकर इस वृद्ध वयसमें भी दाँत पीसनेका प्रयास कर सकते हैं, पर क्या इसीसे यह मान लिया जायगा कि अशक्तकी वेदनाका हिसाब कोई न रखता होगा? जब बलिष्ठ सोचता है कि मैं अपने अन्याय करनेके अबाध अधिकारको संयत नहीं करूँगा; किन्तु ईश्वरके विधानसे उस अन्यायके विरुद्ध जो अनिवार्य प्रतिकार-चेष्टा मानव-हृदयमें धुंधा- धुंधाकर जल उठा करती है उसीको एकमात्र अपराधी बनाकर कुचल डालूँगा और निश्चिन्त हो जाऊँगा, तब बलके द्वारा ही प्रबल अपने बलके मूलमें आघात करता है, क्योंकि उस समय वह अशक्त पर चोट नहीं करता--विश्वब्रह्माण्डके मूलमें जो शक्ति है उसी वनशक्तिके विरुद्धमें अपना मुक्का उठाता है। यदि कोई कहे कि भारतवर्षमें आज दिन जो क्षोभ अस्त्रहीनको भी निष्ठुर बना रहा हैं, शक्ति सामर्थ्यहीनका भी धैर्य छुड़ा कर निश्चित आत्महत्याके आगे ढकेल रहा है, उसके हम किसी अंशमें भी कारणीभूत नहीं हैं, हम न्यायको कहीं ठोकर नहीं लगाते, हम स्वभावसिद्ध तिरस्कार और औद्धत्यके द्वारा कभी अपने उपकारको उपकृतके निकट अरुचिकर नहीं बनात; यदि कोई सारे दोषका ठीकरा हमीं पर फोड़ दे, असफलताजनित असन्तोषको भारतका अकारण अपराध और अपमानजनित दुःखदाहको उसको घोरतर अकृतज्ञता