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राजा और प्रजा।
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देशकी सबसे बड़ी आवश्यकता क्या है ?" इस विरक्तिको सहन करके भी हमें उत्तर देनेके लिये तैयार होना पड़ेगा।

भारतवर्षके सामने विधाताने जो समस्या रक्खी है, वह अत्यन्त दुरूह हो सकती है पर उसको ढूंढ़ निकालना कठिन नहीं है। वह बिलकुल हमारे सामने है, उसके ढूँढ़ने के लिये दूसरे दूरके देशोंके इतिहासमें भटकनेसे उसका पता नहीं मिल सकता।

भारतवर्षके पर्वतप्रान्तसे समुद्रसीमातक, काश्मीरसे रासकुमारी- तक कौन सी बात सबकी अपेक्षा अधिक स्पष्टतासे दिखाई पड़ रही है ? यही कि इतनी भिन्न भिन्न जातियाँ, इतनी विविध भाषाएँ, इतने विषम आचार संसारके और किसी भी एक देशमें एकत्र नहीं हैं |

पाश्चात्य देशोंके जितने इतिहास हम लोगोंने स्कूलमें पढ़े हैं, उनमें ऐसी समस्याका कहीं अस्तित्व नहीं पाया। जिन प्रभेदोंके रहते हुए युरोपमें एकताका सूत पिरोया गया है वे एक दूसरेके अत्यन्त विरोधी थे । लेकिन फिर भी उनमें मिलनका एक ऐसा स्वाभाविक तत्त्व मो- जूद था कि मिल जानेपर उसके जोड़के चिह्न तकको ढूंढ़ निकालना असम्भव हो गया। प्राचीन ग्रीक, रोमन, ग्रंथ आदि जातियोंकी शिक्षा दीक्षामें चाहे जितनी भिन्नता रही हो, पर वस्तुतः वे एक जाति थीं। परस्परकी भाषा, विद्या और रक्तको मिलाकर एक होनेका उनमें स्वाभा- विक झुकाव था। विरोधकी आँचमें पिघलकर जिस समय वे एक हो गई उस समय जान पड़ा कि सब एक ही धातुसे ही गढ़ी हुई थीं। इंग्लैण्डमें भी किसी समय सैक्सन, नार्मन और कल्टिक जातियोंका एकत्र जमाव हुआ था। पर इनमें एक ऐसा स्वाभाविक और बलवान् ऐक्य तत्त्व विद्यमान था जिससे विजयी जाति विजयीके रूपमें अपना