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पृष्ठ:राजा और प्रजा.pdf/१९६

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समस्या।
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स्वातन्त्र्य रख ही न सकी। विरोध करते करते ही वह कब गलकर एक हो गई, इसका किसीको पता तक नहीं चला।

अतएव युरोपने भिन्न भिन्न जातियोंको जो ऐक्य दान किया है वह स्वाभाविक ऐक्य है। अब भी वह इस स्वाभाविक ऐक्यका ही आदर करता है। वह अपने समाजों में किसी गुरुतर प्रभेदको स्थान देना ही नहीं चाहता, या तो वह उसे नष्ट कर डालता है या खदेड़ देता है। युरोपकी चाहे कोई जाति क्यों न हो, अँगरेजी उपनिवेशोंके प्रवेश द्वार उसके लिये आठों पहर खुले रहते हैं, पर एशियाका एक भी आदमी ऐसा भाग्यवान् नहीं हो सकता जिसके उक्त द्वार तक पहुँचनेपर वहाँ अंगरेजोंका सतर्कतारूपी सर्प फन फुलाए और फुफकारता न मिले।

युरोपके साथ भारतकी इसी जगहसे, मूलसे ही विषमता देख पड़ती है। भारतका इतिहास जत्ब शुरू हुआ, उसी समय, उसी मुहूर्तमें वर्णक साथ वर्णके विरोधका और आर्य्योंके साथ अनार्योंके विरोधका जन्म हुआ। तबसे इस विरोधको मिटानेके दुस्साध्य साधनमें भारतका मन बराबर लगा हुआ है। जो आर्यसमुदायमें अवतार माने जाते हैं उन रामचन्द्रने दाक्षिणात्यमें आर्य उपनिवेश बढ़ानेके लिये जिस दिन निषादराजगुहके साथ मित्रताका सम्बन्ध जोड़ा था; जिस दिन उन्होंने किष्किन्धाके अनार्योंको नष्ट न करके अपनी सहायताके लिये सन्नद्ध किया था और लंकाके परास्त राक्षसराज्यको निर्मूल करनेके बदले विभीषणसे भाईचारा करके शत्रुपक्षकी शत्रुताका दमन किया था, उसी दिन इन महापुरुषका अवलम्बन कर भारतवर्षके उद्देश्यने अपने आपको व्यक्त किया था। उस दिनके बादसे आजतक इस देशमें मनुष्योंका जो जमाव हुआ है उसमें विचित्रता और विभिन्नताका