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पृष्ठ:राजा और प्रजा.pdf/१९८

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समस्या।
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के एक होनेमें बाधा भी करने लगती हैं। जिस प्रकार ये आघातसे बचाती हैं उसी प्रकार मिलनसे भी बाज रखती हैं। अशान्तिको दूर खदेड़ रखना ही शान्तिकी प्रतिष्ठा करना नहीं है, वस्तुतः यह अशान्तिको कहीं न कहीं, सर्वदा जीवित रखना ही है। विरोधको यदि हम अपनेसे कुछ दूरपर रक्खें तो भी उसका पोषण ही करते रहेंगे; बन्धन जरा सा ढीला होते ही उसकी प्रलय मूर्ति हमारे सामने आ चमकेगी। यही नहीं, इस प्रकार एकत्र रहनेवालोंका मिलन, जिनमेंसे प्रत्येक एक निश्चित घेरेके अन्दर रहनेके लिये बाध्य हो, मिलनकी नेतिवाचक अवस्था है, इतिवाचक नहीं। इससे मनुष्य आराम पा सकता है; पर शक्ति नहीं पा सकता। श‍ृंखला केवल काम चलानेका साधन है, प्राण जाग्रत होता है एकताके द्वारा।

भारतवर्ष भी इतने दिनों तक अपनी बहुशः अनेकताओं और विरोधोंको अलग अलग घेरोंमें बन्द रखनेका प्रयत्न करता रहा है। इतने वास्तविक विरोध और किसी देशमें नहीं हुए हैं, इसलिये उनको ऐसे दुस्साध्य साधनमें अपनी शक्ति खपानेकी कभी आवश्यकता भी नहीं पड़ी है।

बहुशः विशृंखल और विच्छिन्न सत्य जिस समय स्तूपाकार होकर ज्ञानका रास्ता रोकने लगते हैं उस समय विज्ञानका पहला काम होता है उनको गुणकर्मके अनुसार श्रेणीबद्ध कर देना। किन्तु क्या विज्ञानमें और क्या समाजमें श्रेणीबद्ध करना आरम्भका कार्य है, कलेवरबद्ध करना ही अन्तिम कार्य्य है। ईंट, सुर्खी, चूना, लकड़ी जिसमें मिलकर एक दूसरेको नष्ट न कर डालें इसलिये उनमेंसे हर एकको अलग अलग स्थानमें रख देना ही इमारत बना डालना नहीं है।

हमारे देशमें श्रेणी-विभागका कार्य्य हुआ है पर निर्माणका कार्य्य या तो आरम्भ ही नहीं हुआ या हुआ तो अधिक दूरतक अग्रसर नहीं