असंलग्न हैं। ऐसा कोई अवसर ही नहीं आता जब दोनोंकी एक अवस्था हो, दोनोंके मनमें एक प्रकारकी अनुभूति हो। हो सकता है कि ऐसी शासनप्रणालीमें सुव्यवस्थाका अभाव न हो, पर व्यवस्था मात्र ही मनुष्यकी आवश्यकता नहीं है, उसकी आवश्यकता इसकी अपेक्षा कहीं ऊँची है। जिस आनन्दमें मनुष्य जीवित रहता है, जिस आनन्दसे उसका विकास होता है वह केवल आइन-अदालतोंका मुप्रतिष्ठित होना और धन प्राणोंका सुरक्षित होना नहीं है। सारांश यह कि मनुष्य आध्यात्मिक जीव है—उसके शरीर है, मन है, हृदय है। उसको यदि तृप्त करना हो तो इन सभीको तृप्त करना पड़ेगा। जिस पदार्थमें सजीव सर्वाङ्गीणताका अभाव हो उससे उसे क्लेश पहुँचेगा ही। उसको कुछ देते समय यही नहीं सोचना पड़ेगा कि क्या दें, यह भी सोचना होगा कि किस प्रकार दें। यदि उसके साथ साथ आत्मशक्तिकी उपलब्धि उसे न होगी तो उपकार उसके लिये भार हो जायगा, अत्यन्त कठोर शासनको भी वह बिलकुल मौन भावसे सह लेगा, यही नहीं स्वयं आगे बढ़कर उसका वरण भी कर लेगा, यदि उसमें स्वाधीनताका रस भी मिश्रित हो। इसीसे कहा है कि, खाली खूली सुव्यवस्था ही मनुष्यको परितृप्त नहीं कर सकती।
जहाँ शासक और शासित एक दूसरेसे बहुत दूर रहते हों जहाँ प्रयोजनके सिवा और कोई उच्चतर, आत्मीयतर सम्पर्क दोनोंमें स्थापित होना असम्भव हो, वहाँकी राज्यव्यवस्था उत्कृष्टसे उत्कृष्ट होनेपर भी इजलास अदालत आईन कानूनके अतिरिक्त और कुछ न होगी। उत्कृष्ट राज्यव्यवस्था होते हुए भी मनुष्य क्यों दिनपर दिन केवल छीजता जा रहा है, उसके भीतर और बाहरके आनन्दके स्रोत दिनपर दिन क्यों सूखते जा रहे हैं, शासक इसको समझना ही नहीं चाहता, वह