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राजा और प्रजा।
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केवल क्रोध करता है। यही नहीं, स्वयं भोक्ता भी अपने रोगको समझनेके अयोग्य हो जाता है। अतएव इस बातको किसी प्रकार अस्वीकार न किया जा सकेगा कि शासन और शासितमें सम्बन्धका एकदम अभाव होनेकी स्थितिमें जो जीवनहीन शुष्क शासनप्रणाली अनिवार्य होती है, भारतकै भाग्यमें वही शासनप्रणाली आ पड़ी है।

इसके बाद अठारहवीं शताब्दीके फ्रान्सके साथ भी भारतका एक विषयमें भेल मानना पड़ेगा। हमारे शासकोंकी जीवनयात्रा और रहनसहन भी हमसे बहुत अधिक व्ययसाध्य है। उनका खाना पहनना, उनका विलास-विहार, समुद्रके इस पार और उसपार दोनों जगहकी उनको रसद जुटाना, उनका यहाँका काम समाप्त हो रहनेपर विलायती छुट्टियोंके आरामकी तैयारी, यह सभी हमारे सिर है। कौन नहीं जानता कि देखते देखते उनकी विलासिता कहाँसे कहाँ जा पहुँची है। वह केवल ऊपर चढ़ना ही जानती है। इस विलासिताकी सारी सामग्री जुटानेका भार उस भारतवर्षपर है, जिसे अपने लिये दोनों समय भर पेट अन्न भी नहीं मिलता। ऐसी अवस्थामें विलासी प्रबल पक्षका हृदय निर्मम और पत्थर हो जानेके लिये बाध्य होता है। यदि उनसे कोई कहे कि इस अभागेको कभी भरपेट भोजन नहीं मिला, तो वे साबित करना चाहेंगे कि उसका पेट इतना ही भोजन पचा सकता है और उसके पोषणके लिये उतना ही यथेष्ट भी है। जो बेचारे क्लार्क नित्य आठ आठ नौ नौ घंटे तक सिर ऊपर करनेकी कसम खाकर बैठते हैं, हजारों रुपए वेतन पाकर एलेक्ट्रिक फैन (बिजलीके पंखे) के नीचे आराम कुर्सीपर लेटे रहनेवाले बड़े साहब कभी भूलकर भी यह नहीं सोचना चाहते कि १५-२० रुपए मासिकमें किस प्रकार वे अग्ने समस्त परिवारको भोजन देकर अपना पेट भर सकते होंगे।