पृष्ठ:राजा और प्रजा.pdf/२०२

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
समस्या।
१९१

क्या करें, यदि वे इन चिन्ताओंमें पड़कर अपनी मनःशान्ति और सुचित्तता बिगाड़ लें तो पाचन-क्रियामें फर्क आजाय, यकृत अपने कामसे इस्तेफा दे दें। जब यह बात निश्चित है कि थोड़ी आमदनी से उनका गुजारा नहीं हो सकता और न भारतवर्षके जेबके अतिरिक्त और कहींसे कुछ पानेकी वे आशा ही कर सकते हैं, तब उनके आसपासके और लोग क्या खाते, क्या पहनते और किस प्रकार दिन काटते हैं, इस बातको वे निस्वार्थ होकर सोच ही नहीं सकते। विशेष कर उस दशामें जब कि एक दोको नहीं-एक राजा या सम्राट मात्रको नहीं—सारी जातिकी जातिको अमीरीका सामान भारतवर्षको ही देना है। जो लोग बहुत दूर रहकर हद दर्जेके सुखमें रहना चाहते हैं उनके लिये सब प्रकारके आत्मीयता सम्पर्कसे शून्य जातिको अन्न वस्त्रकी गाड़ियों भर भरकर पहुँचानी पड़ती हैं। यह निष्ठुर असामअस्य प्रतिदिन बढ़ता जा रहा है, इस बातको केवल वे ही लोग न मानेंगे जिनके लिये आराम अत्यन्त आवश्यक हो गया है।

अतः एक तरफ बड़ी बड़ी तनख्वाहें, भारी पेन्शनें, ऊँची रहन-सहन और दूसरी तरफ पराकाष्ठाका लेश, आधे पेट खाकर संसारयात्राका निर्वाह—ये दोनों असंगत अवस्थाएँ बिलकुल साथ ही साथ लगी हुई हैं। अन्न वस्त्रकी कमी ही एक बात नहीं है, मानमर्यादामें भी हम उनसे इतने हेठे हैं,हमारे और उनके मूल्यमें इतना भारी भेद है कि कानून भी पक्षपातका स्पर्श बचाकर चलनेमें असमर्थ हो गया है। ऐसी दशामें जितने दिन बीत रहे हैं, भारतकी छातीपर विदेशियोंका भार उतना ही गुरुतर होता जा रहा है, उभयपक्षक बीच असमानताकी खाई पातालपर विराम करने जा रही है—इसको न समझनेवाला आज कोई न मिलेगा। इस दशामें एक ओर वेदना जितनी दुस्सह होती है