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समस्या?
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ऐसी दलील मी सुनी है कि जितने दिन हम दूसरोंके कड़े शासनके अधीन रहेंगे उतने दिनतक हम राष्ट्राकारमें संगठित न हो सकेंगे—पग पगपर बाधा होगी, एकत्र होकर जिन बड़े बड़े कामोंको करते रहनेसे परस्पर एक प्रकारकी एकता उत्पन्न हो सकती है वैसे काम करनेका—जिस प्रकार एकत्र होनेसे पूरा पूरा संयोग होना सम्भव है उस प्रकार एकत्र होनेका—अवसर ही न पावेंगे। यदि यह बात सत्य है तो फिर हमारी समस्याकी कोई मीमांसा ही नहीं है। क्योंकि विच्छिन्न कभी मिलितसे विरोध करके जयकी आशा नहीं कर सकता। विच्छिन्नकी शक्ति विच्छिन्न, उद्देश्य विच्छिन्न, अध्यवसाय विच्छिन्न-सभी कुछ विच्छिन्न होगा। विच्छिन्न पदार्थ जबतक जड़की भाँति पड़े रहेंगे तभीतक उनका कुशल है, जरासी हवा देकर उन्हें सचल करते ही उनका संगठन हवा हो जायगा, वे तितर बितर हो जायँगे और एक दूसरेसे टकराकर टूट जायँगे; उनके भीतरकी सारी कमजोरियाँ अनेक रूप धारण करके उनका विनाश करने लगेंगी। जबतक हम स्वयं एक न बन लेंगे तबतक किसी ऐसेको भी परास्त न कर सकेंगे जिसकी एकता असली न होकर बनावटी ही हो।

केवल यही नहीं कि हम उनको परास्त न कर सकेंगे बल्कि बिलकुल आकस्मिक कारण भी उस एक बाहरी बन्धनको तोड़ फेंकेंगे जिसके द्वारा हम एक दिखाई पड़ रहे हैं। फिर जिस समय हम आपसमें एक दूसरेके शत्रु बन जायँगे उस समय यह भी सम्भव न होगा कि थोड़ी देरतक घरेलू मारकाट करनेके अनन्तर हम अपने विरोधकी मीमांसा कर सकें। मीमांसा करनेका हमें मौका ही कोई न देगा। संयोगसे लाभ उठानेका ख्याल केवल हमींको नहीं है, संसारके जिन प्रबल राष्ट्रोंके घोड़े आठों पहर कसे कसाए तैयार रहते हैं वे हमारे