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पृष्ठ:राजा और प्रजा.pdf/२०७

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राजा और प्रजा।
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किसी न किसी उपायसे संयुक्त होकर बलवान् बननेका प्रश्न ही हमारे लिये सबसे बड़ा प्रश्न नहीं है, और इसीलिये यही सबकी अपेक्षा अधिक सत्य भी नहीं है।

हम पहले ही कह चुके हैं कि निरा प्रयोजनसिद्धिका सुयोग, निरी सुव्यवस्था ही मनुष्यकी सब आवश्यकताएँ पूरी नहीं कर सकती; केवल इन्हींको लेकर वह जीवित नहीं रह सकता। ईसाने कहा है, मनुष्य केवल रोटीहीके सहारे नहीं जीता। कारण यह कि उसका केवल शारीरिक जीवन ही नहीं, आध्यात्मिक जीवन भी है। इसी बृहत् जीवनके लिये खाद्यका अभाव होनेके कारण अँगरेजी राज्यमें सब प्रकारका सुशासन रहते हुए भी हमारे आनन्दका सौता सूखता जा पर यदि इस अवस्थाकी सारी जिम्मेदारी केवल बाहरी कारणपर ही होती, यदि अँगरेजी राज्य ही उपर्युक्त खाद्याभावका एक मात्र कारण होता तो कोई बाहरी उपचार करके ही हम अपना काम बना ले सकते। हम तो घरमें भी बरसोंसे उपवास करनेके आदी हो रहे हैं। हम हिन्दू और मुसलमान, हम भारतके भिन्न भिन्न प्रान्तोंके हिन्दु, एक जगह बसते हैं सही, पर मनुष्य एक दूसरेको रोटीकी अपेक्षा जो उच्चतर भोजन देकर परस्परके प्राण, शक्ति और आनन्दको परिपुष्ट करते हैं, हम एक दूसरेको उसी खाद्यसे वंचित रखनेका उपाय करते आ रहे हैं। हमारी सारी हृदयवृत्ति, सारी हितचेष्टा, परिवार और वंशमें एवं एक एक संकीर्ण समाजमें इस प्रकार जकड़ गई है कि साधारण मनुष्यके साथ साधारण आत्मीयताका जो विशाल सम्बन्ध है उसको स्वीकार करनेके लिये हमारे पास कोई सामान ही नहीं रह गया है—उसको बैठानेके लिये हमारे घरमें एक चटाईतक नहीं है। यही कारण