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समस्या।
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है कि द्वीपपुंजकी भाँति हम खण्ड खण्ड हो गए हैं, पर महादेश की तरह ब्याप्त, विस्तृत और एक नहीं हो सके।

प्रत्येक छोटा मनुष्य बड़े मनुष्यके साथ अपनी एकताको विविध मंगलोंके द्वारा विविध आकारोंमें उपलब्ध करना चाहता है। इस उपलब्धिकी बड़ाई इसलिये नहीं है कि इससे उसका कोई विशेष प्रयोजन सिद्ध हो जाता है। बल्कि यही उसका प्राण है। यह उसका मनुष्यत्व अथवा धर्म है। इस उपलब्धिसे उसको जितना ही बंचित रक्खा जायगा उतना ही वह सूखता जायगा—उतना ही प्राणरहित होता जायगा। दुर्भाग्यवश बहुत दिनोंसे हमने इस शुष्कताको ही आश्रय दे रक्खा है। हमारे ज्ञान, कर्म, आचार और व्यवहारके, हमारे सब प्रकारके लेनदेनके बड़े बड़े गजमार्ग एक एक छोटी मण्डलीके सामने पहुँचकर खण्डित हो गए हैं। हमारा हृदय और चेष्टा मुख्यतः हमारे निजके घर, निजके ग्राममें ही चक्कर काटती रहती है। विश्वमानबके सामने जाकर खड़ी होनेका कभी अवसर ही नहीं पाती। फलतः हम पारिवारिक सुख पाते हैं, छोटे संकीर्ण समाजकी सहायता पाते हैं, पर बृहत् मानवी शक्ति और सम्पूर्णतासे बहुत दिनोंसे वंचित हैं जिससे हमें दीन हीन होकर दिन काटना पड़ रहा है।

इस भारी अभावकी पूर्तिका साधन यदि हम स्वयं ही-घरमें ही निर्माण न कर सके तो बाहरसे वह हमें क्यों मिलने जायगा। हम यह क्यों मान लेते हैं कि अंगरेजोंके चले जानेसे हमारा यह छिद्र भर जायगा? हममें परस्पर श्रद्धाका अभाव है, हम एक दूसरेको पहचानने तकका प्रयत्न नहीं करते, सैकड़ों और हजारों वर्षोंसे हम घरसे आँगनको विदेश मानते आ रहे हैं। इस सारी पारस्परिक उदासीनता अवज्ञा और विरोधको दूर भगानेकी आवश्यकता क्या केवल इसलिये