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पृष्ठ:राजा और प्रजा.pdf/२१०

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समस्या।
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धक्का दो, खुलनेसे निराश होकर घरवालेकी बेपरवाईसे क्षुब्ध होकर कदापि लौट न आओ। एक मानवहृदय दूसरे मानवहृदयकी पुकारको अधिक समय तक कदापि अनसुनी नहीं कर सकता।

भारतका आह्वान हमारे अन्तःकरणोंतक पहुँचा है। लेकिन यह बात हम कभी न मानेंगे कि यह आह्वान समाचारपत्रोंकी क्रोधपूर्ण गर्जनामें ही ध्वनित हुआ हैं अथवा हिंसाशील उत्तेजनाकी चिल्लाहटमें ही उसका सचा प्रकाश हुआ है। पर इस बातको कि यह आहान हमारी अन्सरात्माको उद्बोधित कर रहा है, हम तब मानेंगे जब देखेंगे कि किसी विशेष जाति या किसी विशेष वर्णके ही नहीं दुर्भिक्षपीड़ित मात्रके द्वारपर हम रोटियाँ लिए खड़े हैं, जब देखेंगे कि भद्र अभद्रका भेद न कर हम तीर्थस्थलोंमें एकत्र यात्री मात्रकी सहायताके लिये बद्धपरिकर हैं, जब देखेंगे कि राजपुरुषों के निर्दय सन्देह और प्रतिकूलताका सामना होते हुए भी अत्याचारके प्रतिरोधकी आवश्यकताके समय हमारे युवक विपत्तिके भयसे कुण्ठित नहीं होते। सेवाके समय संकोचका अभाव, दूसरोंकी सहायताके समय ऊँच नीचके विचारका अभाव—ये सुलक्षण जब देख पड़ने लगेंगे तब हम समझेंगे कि इस बार जो आह्वान या जो पुकार हमारे कानोंमें पड़ी है वह हमारी सारी संकीर्णताओंके तहखानोंको तोड़कर हमें बाहर निकाल लेगी, तब हम समझेंगे कि अबके भारतमें मनुष्यकी ओर मनुष्यका आकर्षण हुआ है। तब समझेंगे कि इस बार प्रत्येक व्यक्तिका प्रत्येक प्रकारका अभाव पूर्ण करनेके लिये हमें जाना होगा, अन्न, स्वास्थ्य और शिक्षाका दान और विस्तार करनेके लिये हमें संसारसे पूर्णतया अलग दूर दूरतकके गौवोंको अपना जीवन भेंट करना होगा, तब हम समझेंगे कि अब कोई हमको अपने निजके स्वार्थ और सुख स्वच्छन्दताकी बहार दीवारीमें