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अँगरेज और भारतवासी।
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नहीं है और साथ ही उनके नजदीक इसका कोई यथेष्ट मूल्य भी नहीं है। यदि उन लोगोंसे यह बात भी कही जाय कि काली गऊके स्तन- मेंसे भी सफेद ही दूध निकलता है और भिन्न वर्गों में परस्पर हृदयकी भारी एकता होती है तो भी इस कहनेका कोई फल नहीं है । लेकिन ये सब ओरिएण्टल ( Oriental ) उपमाएँ देनेकी आवश्यकता नहीं है। कहनेका तात्पर्य यही है कि कालोंको देखते ही गोरी जातिका मन बिना कुछ विमुख हुए रह ही नहीं सकता ।

और फिर वस्त्र, आभूषण, अभ्यास, आचार आदि सभी बातोंमें ऐसी विसदृशता है जो हृदयको केवल चोट ही पहुँचाया करती है।

ये सब तर्क भी व्यर्थ ही हैं कि शरीरको आधा ढाँककर और आधा नंगा रखकर भी मनके अनेक सद्गुणोंका पोषण किया जा सकता है। मानसिक गुण कुछ छायाप्रिय कोमल जातिके पौधों के समान नहीं हैं और बिना जीन या बनातसे ढाँके दूसरे उपायोंसे भी उनकी रक्षा की जा सकती है। यह तर्ककी बात नहीं है बल्कि संस्कारकी बात है।

यदि दोनों जातियों बहुत ही पास पास और हिल-मिलकर रहें तो इस संस्कारका बल बहुत कुछ कम हो सकता है; परन्तु कठिनता तो यही है कि यह संस्कार ही किसी एकको दूसरेके निकट नहीं जाने देता। जिन दिनों स्टीमर नहीं थे और सारे आफ्रिकाकी परिक्रमा करके पालवाले जहाज बहुत दिनोंमें भारतसे चलकर बिलायत पहुँचते थे उन दिनों अँगरेज लोग भारतवासियोंके साथ कुछ अधिक घनिष्टता रखते थे । लेकिन आजकल साहब बहादुर तीन ही महीनेकी छुट्टी पाते ही चटपट इंग्लैण्ड भाग जाते हैं और भारतकी जो धूल उनपर पड़ी होती है वह सब वहाँ धो आते हैं। और फिर इधर भारतवर्ष में भी उनका