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राजा और प्रजा।
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हम लोगोंमें कोई भी स्वप्रधान नहीं है बल्कि प्रत्येक व्यक्ति एक एक बड़े परिवारका प्रतिनिधि है। उसके ऊपर केवल अपना ही भार नहीं है बल्कि उसके पिता, माता, भाई, बहन, पुत्र और परिवारका जीवन भी उसीपर निर्भर करता है। उसे बहुत कुछ आत्मसंयम और आत्म- त्याग करके सब काम करना पड़ता है। उसे सदासे इसीकी शिक्षा मिली है और इसीका अभ्यास हुआ है। यह बात नहीं है कि वह आत्मरक्षाकी तुच्छ इच्छाके सामने आत्मसम्मानकी बलि देता है बल्कि वह बड़े परिवारके सामने, अपने कर्तव्यज्ञानके सामने उसकी बलि देता है। कौन नहीं जानता कि दरिद्र भारतीय कर्मचारी नित्य कितनी फटकारें और धिक्कार सुनकर आफिससे घर चले आते हैं और उन्हें अपना अपमानित जीवन कितना असह्य और दुर्भर जान पड़ता है। उसे जो जो बातें सुननी पड़ती हैं वे इतनी कड़ी होती हैं कि उस दशामें पड़कर सबसे गया बीता आदमी भी अपने प्राण देनेके लिये तैयार हो सकता है; लेकिन फिर भी वह बेचारा भारतवासी दूसरे दिन ठीक समयपर पाजामेपर चपकन पहनकर फिर उसी आफिस में जा पहुँचता है और उसी स्याहीसे भरे हुए टेबुलपर चमड़ेकी जिल्दवाला बड़ा रजिस्टर खोलकर उसी पिङ्गलवर्ण बड़े साहबकी नित्यकी फटकारें चुपचाप सहता रहता है। क्या वह आत्मविस्मृत होकर एक क्षणके लिये भी अपनी बड़ी गृहस्थीका ध्यान छोड़ सकता है ? क्या हम लोग अँगरेजोंकी तरह स्वतंत्र और गृहस्थीके भारसे रहित हैं । यदि हम प्राण देनेके लिये तैयार हों तो बहुतसी निरुपाय स्त्रियाँ और बहुतसे असहाय बालक व्याकुल होकर हाथ उठाते हुए हमारी कल्पनादृष्टि के सामने आ खड़े होते हैं। हम लोगोंको बहुत दिनोंस इसी प्रकार अपमान सहनका अभ्यास हो गया है ।