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अँगरेज और भारतवासी।
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राजनीतिमें प्रेमनीति के लिये कोई स्थान ही नहीं है । भारतवर्षके दो प्रधान सम्प्रदायोंमें उन लोगोंने प्रेमके बीजकी अपेक्षा ईर्ष्याका बीज ही अधिक बोया है । सम्भव है कि ऐसा काम उन्होंने बिना इच्छाके ही किया हो; लेकिन अकबरने प्रेमके जिस आदर्शको सामने रखकर टुकड़े टुकड़े भारतवर्षको एक करनेकी चेष्टा की थी वह आदर्श अंगरेजोंकी पालिसीमें नहीं है। इसीलिये इन दोनों जातियोंका स्वाभा- विक विरोध घटता नहीं है बल्कि दिनपर दिन उसके बढ़नेके ही लक्षण दिखाई देते हैं । केवल कानूनके द्वारा केवल शासनके द्वारा दोनों एक नहीं किए जा सकते। दोनोंको एक करानेके लिये उनके अन्तरमें प्रवेश करनेकी आवश्यकता होती है, उनकी वेदना समझनी पड़ती है, यथार्थ रूपसे प्रेम करना पड़ता है, स्वयं पास आकर और दोनोंके हाथ पकड़कर मेल कराना होता है। यदि केवल पुलिस तैनात करके और हथकड़ी पहनाकर शान्ति स्थापित की जाय तो उससे केवल दुर्द्धर्य या बहुत ही प्रबल बलका परिचय मिलता है । लेकिन अकबरके स्वप्नमें यह बात नहीं थी । सूर्यास्तभूमिके कवि लोग यदि व्यर्थका और मिथ्या अहंकार छोड़कर विनीत प्रेमके साथ गम्भीर आक्षेप करते हुए अपनी जातिको उसके दोष दिखलावें और प्रेमके उस उच्च आदर्शकी शिक्षा दें तो उनकी जातिकी भी उन्नति हो और इस आश्रितवर्गका मी उपकार हो । अँगरेजोंमें इस समय जो आत्माभिमान, अपनी सभ्यताका जो गर्व, अपनी जातिका जो अहं- कार है, क्या वह यथेष्ट नहीं है ? कवि लोग क्या केवल उसी अग्निमें आहुति देंगे---उसीको बढावेंगे । क्या अब भी नम्रताकी शिक्षा देने और प्रेमकी चर्चा करनेका समय नहीं आया सौभाग्यके सबसे ऊँचे शिखरपर चढ़कर क्या अब भी अँगरेज कवि केवल आत्मघोषणा ही करेंगे।