अपनी नासिकाके अग्रभागपर जमा ली है। तुम लोग कचहरी करो,
आफिस चलाओ, दूकान करो, नाच-खेल, मार-पीट लूट-पाट करो
और शिमलेके शैल-शिखरपर विलासकी स्वर्गपुरी- बनाकर सभ्यताके
मदमें मत्त होकर रहो।
दरिद्र बंचित मनुष्य अपने आपको इसी प्रकार सान्त्वना देनेकी चेष्टा करता है। जिस श्रेष्टताके साथ प्रेम नहीं होता उस श्रेष्ठताको वह किसी प्रकार वहन करनेके लिये राजी नहीं होता। इसका कारण यह है कि उसके अन्दर एक सहज ज्ञान होता है जिसके द्वारा वह यह समझता है कि यदि विवश होकर यह सूखी श्रेष्ठता वहन करनी होगी तो उससे धीरेधीरे भार ढोनेवाले मूढ़ पशुके समान हो जाना पड़ेगा।
लेकिन कौन कह सकता है कि यह मानसिक विद्रोह विधाताकी ही इच्छा नहीं है ! वह विधाता जिस प्रकार इस क्षुद्र पृथ्वीकी प्रचण्ड सूर्य के प्रवल आकर्षणसे रक्षा करता है; उसने पृथ्वीमें एक प्रतिकूल शक्ति छिपा रखी है, उसी शक्तिके द्वारा यह पृथ्वी सूर्यके प्रकाश और उत्तापका भोग करके भी अपनी स्वतंत्रताकी रक्षा करती है और सूर्यके समान प्रतापशाली होनेकी चेष्टा न करके अपने अन्दर छिपी हुई स्नेहशक्तिके द्वारा वह श्यामला, शस्यशालिनी, कोमला मातृ- रूपिणी हो गई है, जान पड़ता है कि उसी प्रकार उस विधाताने अँगरेजोंके भारी आर्कषणसे हम लोगोंकी केवल रक्षा करनेका ही यह उद्योग किया है। जान पड़ता है कि उसका अभिप्राय यही है कि हम लोग अँगरेजी सभ्यताके प्रकाशमें अपनी स्वतंत्रताको समुज्वल कर डालें।
इस बातके लक्षण भी दिखाई देते हैं। अँगरेजों के साथ होनेवाले संघर्षने हम लोगोंके हृदयमें जो एक प्रकारके उत्तापका संचार कर