पृष्ठ:राजा और प्रजा.pdf/४१

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
राजा और प्रजा।
३०


उत्तापके पास रख रहे हैं। यदि उसके पहले अक्षर फिरसे उठ आवें तब तो संसारमें हमारे गौरवकी रक्षा हो सकती है और नहीं तो वृद्ध भारतकी इसीमें सद्गति है कि उसका जराजीर्ण शरीर सभ्यताकी जलती हुई चितामें डाल दिया जाय और वह लोकान्तरित तथा रूपान्तरित हो जाय ।

हम लोगोंमें सर्वसाधारणके सम्मानभाजन एक सम्प्रदायके लोग हैं जो वर्तमान समस्याकी एक सहज मीमांसा करना चाहते हैं । उन लोगोंके भाव इस प्रकार हैं;—

बहुतसी बाहरी बातें ऐसी हैं जिनके कारण अँगरेजोंके साथ हम लोगोंका मेल नहीं हो सकता । यही बाहरी बातें सबसे पहले आँखों- पर आघात करती हैं और उससे विजातीय विद्वेषका सूत्रपात हो जाता है । इसलिये सबसे पहले उसी बाहरी विरोधको यथासम्भव दूर करना आवश्यक है। जो आचार व्यवहार और दृश्य बहुत दिनोंके अभ्यासके कारण सहजमें ही अँगरेजोंकी श्रद्धा आकृष्ट करते हैं, इस देशके लिये उन्हीं आचार-व्यवहारों और दृश्योंका प्रवर्तन करना लाभ- दायक । वस्त्र, भूषण, भावभङ्गी, और यहाँ तक कि यदि भाषा भी अँगरेजी हो जाय तो दोनों जातियोंका मेल होनेमें जो बड़ाभारी भेद पड़ता है वह दूर हो जाय और हम लोगोंको अपने सम्मानकी रक्षा करनेका एक सहज उपाय मिल जाय ।

हमारी समझमें यह बात ठीक नहीं है। बाहरी . अनेकता लुप्त कर देनमें सबसे बड़ी विपत्ति यह है कि उससे अनभिज्ञ दर्श- कके मनमें एक झूठी आशाका संचार हो जाता है । और उस आशाकी रक्षा करनेके लिये छिपे तौरपर हमें झूठका शरणापन्न होना पड़ता