पृष्ठ:राजा और प्रजा.pdf/४७

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
राजा और प्रजा।
३६


लोग एकत्र नहीं हो सकते, एक दूसरेका विश्वास नहीं करते और अपनेमेंसे किसीका नेतृत्व स्वीकृत करना नहीं चाहते। हम लोगोंके बड़े बड़े अनुष्ठान बड़े बड़े बुलबुलोंकी तरह बहुत ही थोड़े समयमें नष्ट हो जाते हैं। आरम्भमें तो हम लोगोंका काम बहुत तेजीके साथ उठता है और दो ही दिन बाद पहले तो वह विच्छिन्न होता है तब विकृत होता है और अन्तमें निर्जीव हो जाता है। जबतक यथार्थ त्याग-स्वीका- रका समय नहीं आता तबतक हम लोग खेलवाड़ी बालककी तरह कोई काम हाथमें लेकर पागल बने रहते हैं और थोड़े ही दिनों बाद जब त्यागका समय उपस्थित होता है तो तरह तरहके बहाने करके अपने अपने घर चले जाते हैं। यदि किसी कारणसे हमारा आत्मा- भिमान तिलभर भी भंग होता है तो हमें अपने उद्देश्यके मह- त्वके सम्बन्धमें कुछ भी ज्ञान नहीं रह जाता । जिस प्रकार हो कामके आरम्भ होते न होते हमारा गरमागरम नाम हो जाना चाहिए। यदि विज्ञापन और रिपोर्टो आदिके द्वारा खूब धूमधाम हो जाय और हमारी यथेष्ट प्रसिद्धि हो जाय तो उससे हम लोगोंकी इतनी अधिक तृप्ति हो जाती है कि उसके बाद तुरन्त ही हमारी प्रकृति निद्रालस हो जाती है। फिर जो कार्य धैर्यसाध्य, श्रमसाध्य ओर निष्ठासाध्य होता है उसमें हाथ डालनेमें हमारा जी ही नहीं लगता ।

हमारे लिये सबसे अधिक विस्मय और विचारको बात यही है कि यह दुर्बल अपरिणत और बिलकुल जीर्णचरित्र लेकर हम लोग किस साहससे बाहर निकलकर खड़े हो गए हैं !

ऐसी अवस्थामें अपनी अपूर्णताका संशोधन या पूर्ति न करके उस अपूर्णताको छिपानेकी ही इच्छा होती है। ज्यों ही कोई अपने दोषोंकी समालोचना करनेके लिये खड़ा होता है त्यों ही सब लोग मिल-