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पृष्ठ:राजा और प्रजा.pdf/५०

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अँगरेज और भारतवासी।
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और जिस ओर किसी युरोपियनकी दृष्टि पड़नेकी सम्भावना नहीं होती उस ओर बिलकुल अन्धकार ही रह जाता है। उस ओरका हम बिलकुल अनादर और परित्याग ही कर देते हैं। उस ओरका किसी प्रकारका संशोधन करनेमें हमें आलस्य जान पड़ता है।

इसके लिये हम मनुष्यको दोष नहीं दे सकते । किसी अकिंचन, अपमानितके लिये यह प्रलोभन बहुत ही स्वाभाविक है । भाग्यवानकी प्रसन्नता उसे बिना विचलित किए नहीं रह सकती ।

हम आज कहते हैं कि भारतवर्षके सबसे अधिक दीन और मलिन कृषकको भी हम अपना भाई कहकर गलेसे लगावेंगे । और यह जो गोरे टमटम हाँकते हुए हमारे सारे शरीरपर कीचड़के छींटे डालते हुए चले जाते हैं उनके साथ हमारा रत्ती भर भी सम्बन्ध नहीं है।

ठीक उसी समय यदि वह गोरा अचानक टमटम रोककर हमारी दरिद्र कुटियामें आकर पूछ बाबू ! तुम्हारे पास दियासलाई है ?" तब हमारा जी चाहता है कि हमारे देशके पचीस करोड़ आदमी यहाँ आकर कतारके कतार खड़े हो जायें और देख जाय कि साहब आज हमारे ही घरपर दियासलाई माँगने आए हैं । यदि संयोगवश ठीक उसी समय हमारा कोई सबसे दीन और मलिन कृषक भाई हमारी माताको प्रणाम करनेके लिये हमारे दरवाजेपर आखड़ा हो तो यही जी चाहता है कि किसी प्रकार इस कुत्सित दृश्यको पृथ्वीके अन्दर लुप्त कर दें; जिसमें साहब कभी यह न सोचें कि उस जंगलीके साथ हमारा कोई सम्बन्ध या बहुत दूरकी कोई एकता है।

इसलिये जब हम अपने मन ही मन यह कहते हैं कि हम किसी साहबके पास न जायेंगे, तब हम यह बात अहंकारके साथ नहीं कहते बल्कि बहुत ही विनय और बहुत ही आशंकाके साथ कहते हैं।