होती । निष्ठापूर्वक प्राणपणसे त्याग स्वीकार करनेमें ही यथार्थ
कार्य-सिद्धि है।
सिक्खोंके अन्तिम गुरु गोविन्दसिंहने जिस प्रकार बहुत दिनोंतक दुर्गम एकान्त स्थानमें रहकर भिन्न भिन्न जातियोंके भिन्न भिन्न शास्त्रोंका अ- ध्ययन किया था और बहुत दिनोंमें आत्मोन्नति करनेके उपरान्त तब निर्जन स्थानसे बाहर निकलकर अपना गुरुपद ग्रहण किया था, उसी प्रकार जो मनुष्य हम लोगोंका गुरु होगा उसे अप्रसिद्ध और एकान्तस्थानमें अज्ञातवास करना पड़ेगा। परम धैर्यके साथ गूढचिन्ता करते हुए भिन्न भिन्न देशोंके ज्ञान और विज्ञानमें अपने आपको डुबा देना होगा, आजकल सारा देश अन्धा होकर अनिवार्य वेगसे जिस आकर्षणसे बराबर खिंचा चला जा रहा है उस आकषर्णसे बहुत ही यत्नपूर्वक उसे अपने आपको दूर और रक्षित रखना पड़ेगा और बहुत ही स्पष्ट- रूपसे हानि और लाभके ज्ञानका अर्जन और मार्जन करना पड़ेगा। इतना सब कुछ करनेके उपरान्त जब वह बाहर निकलकर हम लोगोंकी चिरपरिचित भाषामें हम लोगोंका आह्वान करेगा, हम लोगोंको आदेश करेगा तब चाहे और कुछ हो या न हो पर हम लोग सहसा चैतन्य अवश्य हो जायेंगे । तब हम लोग समझेंगे कि इतने दिनोंतक हम लोग भ्रममें पड़े हुए थे। हम लोग एक स्वप्नके वशमें होकर आँखें बन्द करके संकटके रास्तेमें चल रहे थे और वही रास्ता पतनकी उपत्यका है।
हम लोगोंके वे गुरुदेव आजकल के इस उद्भ्रान्त कोलाहलमें नहीं हैं। वे मानमर्य्यादाकी इच्छा नहीं करते। वे कोई बड़ा पद नहीं चाहते । वे अँगरेजी समाचारपत्रोंकी रिपोर्ट नहीं चाहते। वे सब प्रका-