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राजा और प्रजा।
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पत्र सिक्कड़ोंमें बँधे हुए कुत्तोंकी तरह दाँत निकालकर हम लोगोंपर बराबर भूंकते रहते हैं। अच्छा तो लो हम ही चुप हो जाते हैं, लेकिन देखें तो सही जरा तुम लोग भी चुप हो जाओ। तुम लोगोंमेंसे जो अपने स्वार्थकी उपेक्षा करके हाथमें धर्मका झंडा लेकर खड़े होते हैं उन्हें देशनिकालेका दण्ड दो और तुम लोगोंकी जातीय प्रकृतिमें न्यायपर- ताका जो आदर्श है उसे ठठेमें उड़ाकर म्लान कर दो।

लेकिन यह बात किसी प्रकार हो ही नहीं सकती। तुम लोगोंकी राजनीतिमें धर्मबुद्धि सचमुच कोई चीज है । कभी तो उस धर्मबुद्धिकी जीत हो जाती है और कभी उसकी हार हो जाती है। लेकिन उस धर्मबुद्धिको छोड़कर कोई काम नहीं किया जा सकता । आयर्लैंण्ड जिस समय ब्रिटानियासे किसी अधिकारको प्रार्थना करता है तब वह जिस प्रकार एक ओर खूनकी छुरीपर सान देता रहता है उसी प्रकार दूसरी ओर इंग्लैण्डकी धर्मबुद्धिको भी अपनी ओर मिलानेकी चेष्टा करता रहता है। भारतवर्ष जिस समय अपने विदेशी स्वामीके द्वार- पर जाकर अपना दुःख निवेदन करनेका साहस करता है तब वह भी अँगरेजोंकी धर्मबुद्धिसे अपनी सहायता करानेके लिये व्यग्र हो उठता है और बीचमें अँगरेजोंके राजकार्यमें बहुतसी झंझटें बढ़ जाती हैं।

लेकिन जब तक अँगरेजोंके स्वभावपर इस सचेतन धर्मबुद्धिका कुछ भी प्रभाव रहेगा, जबतक उन्हींके शरीरके अन्दर उनके निजके अच्छे और बुरे कार्योंका विचार करनेवाला वर्तमान रहेगा, तबतक हमारी सभा समितियाँ बराबर बढ़ती ही जायेंगी और हमारे समाचार- पत्रोंका भी प्रचार होता रहेगा। इससे हम लोगोंके बलवान् अँगरेज लोग व्यर्थ कुढ़कर जितने ही अधीर होंगे हमारे उत्साह और उद्यमकी आव- श्यकता भी बराबर उतनी ही बढ़ती जायगी।

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