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अपमानका प्रतिकार।

एक बार किसी ऊँचे पदपर काम करनेवाले बंगाली सरकारी कर्मचारीके घर किसी कालेजके अँगरेज प्रिंसिपल साहब निमंत्रित होकर गए थे। उन दिनों जूरीकी प्रथा उठा देनेके लिये एक बिल पेश होने- वाला था और उसी बिलके सम्बन्धमें सारे देशमें आन्दोलन हो रहा था।

भोजनके उपरान्त जब निमंत्रित स्त्रियाँ उठकर बगलवाले कमरेमें चली गई तब बातों ही बातोंमें जूरीकी प्रथाकी चर्चा उठी। अँगरेज प्रोफे- सरने कहा कि जिस देशके लोग अर्द्धसभ्य और अर्द्धशिक्षित हो और जिनकी धर्मनीतिका आदर्श उन्नत न हो उनके हाथमें जूरीके अधिकार सौंपनेका फल सदा बुरा ही होता है ।

यह बात सुनकर हमने मनमें सोचा कि अंगरेज इतने अधिक सभ्य हो गए हैं कि हम लोगोंके साथ व्यवहार करते समय सभ्यताका ध्यान रखना अनावश्यक समझते हैं। हम यह तो नहीं जानते कि हम लोगोंका नैतिक आदर्श कहाँतक ऊपर उठा है अथवा कहाँतक नीचे गिरा है, लेकिन इतना अवश्य जानते हैं कि हम जिसका आतिथ्य भोग करते हों उसकी जातिके लोगोंके विषयमें कठोर वाक्य कहते हुए उनकी अवमानना करना हम लोगोंकी शिष्टनीतिके आदर्शक बहुत बाहर है।

अध्यापक महाशयने और भी एक बात कही थी। वह बात केवल कड़वी और भद्दी ही नहीं बल्कि ऐसी थी कि अँगरेजोंके मुँहसे उसका निकलना बहुत ही असंगत जान पड़ता था। उन्होंने कहा था