कि राजकीय दण्ड धारण करनेवाला पुरुष भाषाके किस कोनेपर घात लगाए बैठा है। और न शासक ही इस बातको अच्छी तरह जानते हैं कि किस स्थानपर वक्ताके पैर रखते ही हमारा दण्ड आकर उसको जमीनपर गिरा देगा। इसलिये स्वभावतः ही उन शासकोंका शासनदण्ड आनुमानिक आशंकाके वेग और अन्ध भावसे चलकर कानूनकी न्यायसीमाका उल्लंघन करता हुआ अचानक उल्कापातकी तरह बैमोके और बेवक्त दुर्बल जीवोंकी अन्तरिन्द्रियको चकित कर सकता है। ऐसे अवसरपर बिलकुल चुपचाप बैठ रहना ही सबसे बढ़कर बुद्धिमत्ताका कार्य है और इस बातके भी कुछ लक्षण अब दिखाई देते हैं कि हमारे इस अभागे देशमें बहुतसे लोग कर्त्तव्य-क्षेत्रसे बहुत दूर छिपे रहकर आपत्तिसे बचानेवाली इस सद्बुद्धिका अवलम्बन करेंगे। और देश के कुछ ऐसे बुरे दिन आ रहे हैं कि हमारे देशके जो बड़े बड़े विक्रमशाली व्याख्यानदाता विलायती सिंहनादसे श्वेत द्वैपायनोंके या गोरे अँगरेजोंके हृदयमें भी सहसा विभ्रम उत्पन्न कर सकते हैं उनमेंसे बहुतसे लोग किसी गुफामें छिपकर चुप रहनेका अभ्यास करने लगेंगे। उस समय ऐसे दुस्साहसिक देशभाई दुर्लभ हो जायँगे जो इस अभागे देशकी वेदनाका निवेदन करनेके लिये राजद्वारतक जा सकें। यद्यपि शास्त्रमें कहा है कि "राजद्वारे स्मशाने च यस्तिष्ठति स बान्धवः" लेकिन फिर भी ऐसी दशामें जब कि स्मशान और राजद्वार इतने अधिक निकटवर्ती हो गए हैं तब उन डरे हुए भाइयों को कुछ क्षमा ही करना पड़ेगा।
हम लोगोंका ऐसा स्वभाव ही नहीं है कि यदि राजा विमुख हो जाय तो हम लोग उससे न डरें। लेकिन इसी प्रश्नने हम लोगोंको बहुत अधिक उद्विग्न कर दिया है कि राजा क्यों इस बातको इतना अधिक प्रकट करने लग गया है कि हम तुम लोगों (प्रजा) से डर रहे हैं।