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क्रूसो और फ़्राइडे।


प्रार्थना करता था और फ़्राइडे को शिक्षा देता था। थोड़े ही दिनों में वह मुझसे भी विशेष धार्मिक हो गया। उसकी संगति से मेरा दिन बड़े ही आनन्द के साथ कटने लगा। यहाँ हम लोगों का आपस में मत-विरोध नहीं, संस्कार की संकीर्णता नहीं, और शास्त्र की भी दुहाई नहीं। हम दोनों व्यक्ति साक्षात् ईश्वर से ज्ञान प्राप्त करके उनको पहचानने की चेष्टा कर रहे हैं।

मैंने फ़्राइडे को अपना सारा जीवन-वृत्त सुनाया और उसको एक छुरी और एक कुल्हाड़ी पुरस्कार में दी। बेहद खुश हुआ। फिर उसको मैंने बन्दूक का सारा तत्त्व सिखला दिया।

मैंने उसको यूरप का, विशेष करके इँगलैन्ड का, वर्णन करके सुनाया। अपने जातीय इतिहास, समाज, धर्म, वाणिज्य, शिक्षा आदि के विषय में बहुत सी बातें कहीं। एक दिन बात ही बात में मेरे जहाज़ डूबने की बात निकल आई। मैंने उसको अपने साथ ले जाकर टूटा हुआ जहाज़ दिखलाया। उसे देख कर फ़्राइडे ने कहा-"ऐसा ही एक जहाज़ मेरे देश में भी एक बार आया था। उस पर सत्रह गौराङ्ग थे। हम लोगों ने उन्हें डूबने से बचाया था।" मैंने पूछा-फिर उन लोगों का क्या हुआ? तुम लोगों ने मार कर उनका कलेवा तो नहीं कर लिया?

फ्राइडे-"नहीं, वे लोग अभी तक मेरे ही देश में हैं।" मैंने पूछा-यह क्यों? क्या तुम्हारे देशवासियों को मन्दाग्नि का रोग हो गया है? तुम लोगों की नरमांस-भक्षण में ऐसी अरुचि क्यों हो गई?