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राबिन्सन क्रूसो।


था। हमारे जहाज़ के डाक्टर ने ३०, ३२ व्यक्तियों की नस काट कर रक्त-निकाल दिया जिससे उन लोगों का आवेग शान्त हुआ।

उन लोगों में दो व्यक्ति पादरी थे। एक वृद्ध था और दूसरा युवा। किन्तु आश्चर्य का विषय यह था कि उस वृद्ध की अपेक्षा वह नव-युवक धर्म-विश्वास और इन्द्रिय-निग्रह में बढ़ कर था। वृद्ध ने हमारे जहाज़ पर आकर ज्यों ही देखा कि अब प्राण बच गये त्योंही वे धड़ाम से गिर कर एकदम मूर्च्छित हो गये। हमारे डाक्टर ने दवा देकर और रक्त-मोक्षण करके उन्हें सचेत किया। तब वे एक रमणी का इलाज करने गये। थोड़ी देर बाद एक आदमी ने डाक्टर से जाकर कहा कि वह वृद्ध पुरोहित पागल हो गये हैं। तब डाक्टर ने उनको नींद आने की दवा दी। कुछ देर बाद उन्हें अच्छी नींद आ गई। दूसरे दिन सबेरे जब वे जागे तब भले-चंगे देख पड़े।

युवा पुरोहित ने अपने आत्म-संयम और प्रशान्त चित्त का अच्छा परिचय दिया था। उन्होंने हमारे जहाज़ पर पैर रखते ही ईश्वर को साष्टाङ्ग प्रणाम किया। मैंने समझा कि शायद उन्हें मूर्च्छा हो पाई है, इसीसे मैं झटपट उन्हें उठाने गया। तब वे सिर उठा कर धीर गम्भीर स्वर से बोले-"मुझे कुछ नहीं हुआ है, मैं परमेश्वर के प्रति अपनी कृतज्ञता प्रकट कर रहा हूँ, इसके बाद आपको भी धन्यवाद दूँगा।" उनको ईश्वरोपासना के समय बाधा देकर मैं सन्तप्त हुआ। कुछ देर बाद वे उठ कर मेरे पास आये और आँसू भरे नयनों से उन्होंने मुझको धन्यवाद दिया। मैंने उनसे कहा-मैंने धन्यवाद पाने का कौन सा काम किया है। मैंने उसी कर्तव्य का पालन किया है जो मनुष्य के प्रति मनुष्य का है।