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दूसरी बार की विदेश-यात्रा


के विरुद्ध कोई काम नहीं कर सकता था, यद्यपि जहाज़ का कप्तान वही था। यदि किसी स्थान में जहाज़ लगा कर खाद्य-सामग्री ख़रीदनी पड़ती तो वह भी मुझे स्वीकार था, पर भूखों को न खिला कर मैं अपना पेट कैसे भरता? हम लोगों के पास यथेष्ट खाद्य-वस्तु थी। मार्ग में कहीं कुछ मोल लेने का अवसर प्राप्त होने की संभावना न थी।

हमने उन लोगों को भोजन दिया। किन्तु वे लोग खाना पाकर भी बड़ी विपदा में पड़े। जो कुछ थोड़ा सा खाने को दिया वही, दीर्घ उपवास के बाद, उन लोगों के पेट में गुरुपाकी हो गया। यदि वे लोग अपनी अवस्था पर ध्यान न देकर अधिक खा बैठते तो बड़ी कठिनता होती। कितने ही लोग कङ्कालरूप हो गये थे, ठठरी मात्र बच रही थी। मैने सब को सावधान कर के थोड़ा थोड़ा खाने को कहा। कोई कोई तो दो एक कौर खाते ही वमन करने लगे। तब डाक्टर ने उन लोगों के भोजन में एक प्रकार की दवा मिला दी। इससे उन लोगों को कुछ आराम मिला। कोई खाने की वस्तु को बिना चबाये ही गट गट निगलने लगा। दो मनुष्यों ने इतना खाना खाया था कि अन्त में उनका पेट फटने पर हो गया।

इन लोगों का कष्ट और अवस्था देख कर मेरा हृदय दया से द्रवित हो उठा था। मैं अपने ऊपर की बीती बात सोचने लगा। जब मैं पहले पहल उस जन-शून्य द्वीप में जा पड़ा था तब मेरे पास एक मुट्ठी अन्न का भी कोई उपाय न था। यदि मुझे कुछ खाने को न मिलता तो मेरी भी ऐसी ही भयङ्कर और शोचनीय दशा होती।

जो लोग चलने में एक दम असमर्थ होगये थे उन लोगों के लिए उन्हीं के जहाज़ पर थाल भर पावरोटी और मांस