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दूसरी बार की विदेश-यात्रा ।

डाक्टर ने युवक को बतला दिया कि हम लोग श्रमुक देश को जा रहे हैं और यह भी समझा दिया कि हम लोगों के साथ जाने से आप अपने बन्धु-बान्धवों से एक बारगी बहुत दूर जा पड़ेंगे । युवक ने कहा,- यह हमें मंजूर है, परन्तु हम उन राक्षसों के जहाज़ में जा कर अपना प्राण गवाँना नहीं चाहते । उन लोगों से पिण्ड छुटाने ही में हम अपना कल्याण समझते हैं।

हमने युवक और उसकी दासी को अपने जहाज़ पर चढ़ा लिया । युवक के साथ कई बोरे चीनी थी । हम लोग उस चीनी को अपने जहाज़ पर न ले सके । भग्न जहाज़ के कप्तान से चीनी की रसीद लेकर कह दिया कि यह माल ब्रिस्टल के रौज़र्स नामक सौदागर से रसीद ले कर उसके हवाले कर देना । किन्तु पीछे देश लौटने पर मालूम हुआ कि वह जहाज़ ब्रिस्टल में पहुंचा ही नहीं। अधिकतर सम्भावना उसके समुद्र में ही डूब जाने की थी।

दासी का चित्त कुछ स्वस्थ होने पर उसके साथ बात- चीत करते करते मैंने पूछा—"बेटी, क्या तुम हमको समझा सकती हो कि अनाहार से कैसे मृत्यु होती है ?" उसने कहा- "हाँ, मैं कोशिश करती हूं, शायद समझा सकूं। पहले कई दिन तक हम लोगों का बड़े कष्ट से भोजन चला । अल्प आहार से दिन दिन शरीर दुर्बल होने लगा। आख़िर हम लोगों के पास खाने को कुछ न रहा। केवल चीनी का शरबत पीकर हम लोग रहने लगीं। प्रथम उपवास के दिन सन्ध्या समय पेट बिल- कुल ख़ाली मालूम होने लगा । शरीर की सारी नसें सिकुड़ने लगीं, बार बार जम्हाई आने और आँखें झपने लगीं । मैं