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क्रूसो का वाणिज्य।


उन में एक भी मेरे पसन्द न आता था। आखिर एक दिन अँगरेज़ वणिक् ने मुझसे कहा-आप मेरे स्वदेशी हैं। आपसे मुझे एक प्रस्ताव करना है। मैं आशा करता हूँ कि आप उससे असन्तुष्ट न होंगे। हम लोग देश से बहुत दूर आ पड़े हैं-आप दैवयोग से और मैं अपनी इच्छा से। किन्तु परिणाम में दोनों की अवस्था अभी बराबर है। जो हो, परन्तु यह देश ऐसा है कि यहाँ वाणिज्य करने से अपने देश की एक मुट्ठी धूल के बदले मुट्ठी भर सोना मिल सकता है। आइए, दस हज़ार रुपया आप दीजिए और दस हज़ार में देता हूँ। हम लोगों की पसन्द लायक यदि कोई जहाज़ मिल जाय तो भाड़े पर लेकर हम लोग चीन वालों के साथ उस मूलधन से व्यवसाय करने जायँगे। आप होंगे जहाज़ के अध्यक्ष और मैं बनूँगा व्यापारी। आलसी होकर समय बिताना ठीक नहीं। संसार में कोई निर्व्यवसायी नहीं है। सभी अपनी अपनी उन्नति में लगे रहते हैं। सभी कर्म-शील हैं। ग्रह-नक्षत्र भी एक जगह बैठे नहीं रहते। सभी जीव जब अपने अपने काम पर तत्पर रहा करते हैं तब हमी लोग मौन साध कर क्यों बैठे रहे?

यह प्रस्ताव मुझे अच्छा लगा। यद्यपि वाणिज्य मेरे स्वभाव के अनुकूल नहीं तथापि भ्रमण ही सही। जिस देश को मैंने पहले कभी नहीं देखा है उसके देखने की लालसा मेरे मन में जागती ही रहती थी। वहाँ जाने की संभावना मेरे लिए कभी अप्रीतिकारक नहीं हो सकती थी।

मनोनुकूल जहाज़ मिलने में बहुत दिन लगे। जहाज़ मिला भी तो अँगरेज़ नाविक नहीं मिलते थे। बड़े बड़े कष्ट से मेंट, एक माँझी और एक गोलन्दाज़ का प्रबन्ध किया।