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राबिन्सन क्रूसो।


पर धन, सम्पत्ति, सम्मान, और यश आदि सभी सुखोत्पादक विषय तुच्छ जान पड़ते हैं। सूर्य-चन्द्र का प्रकाश, वायु, मीठा जल और एक मुट्ठी अन्न तथा शारीरिक स्वास्थ्य ही प्राणियों के परममित्र हैं। इतनी वस्तुएँ मिल जाय तो शरीर यात्रा के लिए और कुछ दरकार नहीं। धर्म ही मनुष्य को सभी यन्त्रणाएँ सहने, प्रकृत महत्त्व प्राप्त करने, दुःख में सुख पाने और सांसारिक वासनाओं को जीतने की शिक्षा देता है। जो सर्वश्रेष्ठ सुखों के निधान आनन्द स्वरूप है उनका साक्षात् परिचय होने से तुच्छ वस्तुओं की ममता नहीं रहने पाती। परम आनन्द पाकर दुःख के समीप कौन जाना चाहेगा?

उनका यह आध्यात्मिक भाषण सुन कर मैंने निश्चय किया कि इस तरह की मानसिक अवस्था ही प्रकृत राजत्व है। जिसका मन ऐसा है वहीं सम्राट है। वही महाराजों का महाराज है।

चाह घटी चिन्ता गई मनुआँ बे परवाह।
जाको कछू न चाह है सो शाहनपति शाह॥

इन धार्मिक नर-नारियों की सङ्गति में हम लोगों के आठ महीने बड़े सुख से कटे। जाड़ा भी बीत चला। अब ज़रा ज़रा दिन का प्रकाश भी दिखाई देने लगा। मैं मई महीने में यात्रा का ठीकठाक करने लगा। मैंने उन ज्ञानोपदेशक महाशय से कहा, "यदि आप चाहें तो मैं आपको छिपाकर किसी अच्छी जगह पहुँचा सकता हूँ।" उन्होंने इसके लिए मुझको धन्यवाद देकर कहा-महाशय, अब आप़ मुझको ऐसा प्रलोभन न दें। मन बड़ा ही दुर्बल होता है। इतने दिनों की साधना एक ही घड़ी में खो बैठूँगा। मैं जहाँ हूँ वहीं रहूँगा।