पृष्ठ:रामचंद्रिका सटीक.djvu/१११

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१०५ रामचन्द्रिका सटीक पिरिभावै। तब तब जगभूषण रिपुकुलदूषण सबको भूषण पहिरावै २८ तोटकछद ॥ कबरी'कुसुमालि शिखीन दई। गजकुम्भनि हारनि शोभमई ॥ मुकुता शुकसारिकनाक रचे । कटिकेहरि किंकिणि शोभसचे २६ दुलरी कलकोकिल कंठ बनी । मृगखजन अंजनभाति ठनी ॥ नृपहंसनि नपुर शोभभिरी । कलहसनि कठनि कंठसिरी॥३०॥ याहू में विरोधाभास है विषमै कहे जलमय "विष तु गरले तोये इवि मेदिनी" औ जैसे अमृत अमर करत है तैसे याहू मुक्तकै अमर करति है विरोधपक्ष में जीवन जीव अविरोधमे जल दुःख प्यास दुःख अथवा विषम कहे टेढ़ी है अमृत जे देवता हैं तिनके फलको देति है अर्थ शुद्धगतिको दैति है श्री जीवनहार जे यमराज हैं तिनको दुख कहे तिनकृत दुख यमयातमा इति वाको अशेष कहे संपूर्ण हरिलेति हैं २७ सुख कहे सुखसों गुणगीता रामचन्द्रकी गुणगीता दुःखफारी व्याघ्रादि सुखकारी कोकिलादि जे विपिन- विहारी कहे वनविहारी हैं ते ससारी मति कहे भेदमय मतिको तजिकै | मनुष्य के समीप में वन जीवन को आपही सों भाइयो आश्चर्य है सो श्रावत है याही संसारी मतिको त्याग जानो २८ तीनि छंदन में एक वाक्यता है शिखी मोर कवरी कहे केशपाश २९ नृपहंस राजहंस ३०॥ मुखवासनिवासित कीन तबै । तृण गुल्म लता तर शूल सबै ।। जलहू थलहू यहि रीति रमें । वनजीव जहाँ तहँ संग भ्रमैं ३१ दोहा ॥ सहज सुगधशरीरकी दिशि विदिशन अव- गाहि ॥ दृती ज्यों आई लिये केशव शूर्पणखाहि ३२ मर- हट्ठाघद ।। यकदिन रघुनायक सीयसहायक रतिनायक अनु- हारि। शुभ गोदावरितट विमलपंचवटि बैठेहुते मुरारि ॥ छवि देसतही मन मदन मथ्यो तन शूर्पणसा तेहि शाल । अतिसुंदर तन परिकलु धीरज धरि बोली वचनरसाल३३॥ मुखवास न कहे मुसके सुगमनसों तृण उशादि गुल्मगुलाप आदि लसा