पृष्ठ:रामचंद्रिका सटीक.djvu/१३३

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१३० रामचन्द्रिका सटीका कुंतल केशपाश हैं घनो कहे प्रति सघन औ धनुष ने हैं तई भौहे हैं श्री शरत्काल में खजन भावत हैं सेई नयन हैं औ राजीष कहे कमल फूलत हैं तेई. पद औ पाणि कहे कर हैं श्री स्वाती नक्षत्र की वर्षा सौ नीरज मोती होत हैं तिनकी हारावलि हृदय में है जाके भी पयोधर जे मध है ते अंबर कहे आकाश में लीन हैं मिले हैं स्त्री पक्ष पयोधर कुच अंवर वस्त्रमें लीन हैं। औ जोन्हाई जो है सोई पाटीर कहे चदनलेप है शरत्पक्ष इसी गति कहे | इसन की गति स्त्रीपक्ष हसनकी ऐसी गति इन सबकरिकै सबके चित्त को | हरे है वश्य करे है २५।२६ तमता अंधकार तमोगुण नारद सत्वगुणी | हैं पतिदेव जे-पतिव्रता हैं तिनकी रति भीति को मानो कहे जानौ अर्थ शरत्काल नहीं है पतिप्रतनकी प्रीति है प्रीति कैसी है पतिसेवा आदि जे सत कहे उत्तमोर्ग हैं तिनकी गति कहे तिन विषे गमन समुझति कहे जानति है शरत कैसी है सब कहे उत्तम से मार्ग राह हैं तिनकी गति कई प्रभावको समु कहे जानति है अर्थ वर्षा करिकै विदारति जे सतमार्ग हैं तिनको प्रकट करति है २७ ॥ दोहा । लक्ष्मण दासी वृद्धसी आई शरद बजाति ॥ मनहुँ जगावनको हमहिं बीते वर्षाराति २८ कुंडलिया ॥ ताते नृप सुग्रीव जैये सत्वर तात । कहियो वचन बुझाइके कुशल न चाही गात ॥ कुशल न चाही गात चहत हो बालिहि देखो। करहु न सीतासोध कामवश राम नलेखो। राम न लेखो वित्तचही सुखसम्पति जाते । मित्र कह्यो गहि बांह कानि कीजत है ताते २६ दोहा॥ लक्ष्मण कि- किया गये वचन कहे करि क्रोध ॥ तारा तव समुझाइयो कीन्हों बहुत प्रबोध ३० दोधाबद ।। वोलि लये हनुमान तबैजू । ल्याबहु वानर बोलि सबैजू ॥ बार लगैन कहू विर- माहीं । एमन कोउ रहै घरमाही ३९ त्रिभगीबद ॥ सुग्रीव सघाती मुरुदत राती केशव साथहि शूर नये । माकाश विलासी सूरप्रकासी तवहीं पानर श्राहगये ॥ दिशिदिशि