पृष्ठ:रामचंद्रिका सटीक.djvu/१५६

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१५४ रामचन्द्रिका सटीक। औ पियूष कहे अमृतकी अमृत युक्त चन्द्रमा धारण करे हैं तासों श्री विष को सागर पक्ष भूति कहे उत्पत्ति है विभूति कहे रत्नादि द्रष्य श्री पियूष को अमृत नौ विषकी जासी देव प्रदेव कश्यपके पुत्र हैं तासौं पिताको घर पुत्रन को लाग्योई चाहै औ समुद्र की दीर्घता देखि देव प्रदेव मोहित कहे | मूञ्छित होत हैं नागर कहे बगर श्रेष्ठ सो चदन को जो नीर कहे उद्धर है ताके जे तरग हैं तासों तरंगित चित्रित है अर्थ अंगनमों नीकीविधि चदन लेपकरे हैं सागर पक्ष चदन वृक्ष करिकै नीरके तरग तरंगित हैं जाके अर्थ | जाके तरगमें चंदन वृक्ष बहत है जो कहौ अमृतोत्पत्ति श्री हरिशयन क्षीरसा गरमों है सौ इहां समुद्रकी जातिमात्रको वर्णन है लवण क्षीरभेद सों नहीं है सो जानो ३४ मा समुद्रको जलकी जाल कहे समूह जो है सो कालहूते कराल जे तिमिगिल मत्स्यभेद हैं तिन्, मादि जे जलजीव है तिनसों कहे तिन सहित बसत हैं अर्थ जा जलमें सिमिगिलादि रहत हैं आदि पदते ग्राहादि जानो सो कैसो शोभित है जैसे लोभ औ क्षोभ कहे डर औ विमोह भी कोह कहे क्रोध औ काम सहित खलको दुष्टको उर लसत है औं बहुत संपत्ति रवादिसों युक्त है वाहूपर कोऊ मांगनो कहे याचक अर्थ ले रत्नादि लेने के लिये जात हैं पाहुनो कहे नातो विष्णु आदि तिनको नीर जल पाषत नहीं देखिपत ताते घड़े पातकीसम लेखियत है गोवधादि पापयुक्त बड़े पावकीहू को जल प्रति संपतिहू के लोभसों कोऊ नहीं पीवत इति भावार्थ: ३५॥ इति श्रीमजगजननिजनकजानकीजानकीजानिप्रसादाय जननिकी प्रसादनिर्मितायाराममतिप्रकाशिकाया चतुर्दशाप्रकाशः ॥ १४ ॥ दोहा ॥ यह प्रकाश दशपंचमें दशशिर करे विचार ॥ मिलन विभीषण सेतु रचि रघुपति जैहैं पार १॥रावण- गीतिकालद ॥ सुरपाल भूनलपालही सब मूलमत्रते जा- निये । बहुमत्र वेद पुराण उत्तम मध्यमाधम गानिये ॥ करिये जो कारज आदि उत्तम मध्यमाधम भानिये। उरमध्य पानि अनुत्तम जे गये ते काज बखानिये २ स्वागताबद ॥भाजु