पृष्ठ:रामचंद्रिका सटीक.djvu/२४८

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२४७ रामचन्दिना सटीक । होत है वृद्धताह में तासों जानौ औ कि अनेक जे व्याधी शरीरव्यथा हैं तिनकी अनेक जरै हैं औ कि अनेक प्राधी जे मानसीव्यथा लिखी हैं तिनके आखर अक्षर हैं जिनको अंत नहीं पाइयत अर्थ बहुत हैं वृद्धता में अनेक आधि व्याधि होती हैं इति भावार्थः औ कि जरा जो बुढ़ाई है ताने शर बाण तिनके पंजर में जीव को जस्यो कहे डास्यो है औ कि जराजर कहे जरबाफी कंबर सो जीव को पहिरायो है १३ यामें जीव प्रति काहूको उपदेश है सो उपदेश कहि रामचन्द्र दुराशाकृत पीड़ा देखावत हैं जाकी कहे जा ब्रह्म की १४ ॥ दोहा ॥ जहां भामिनी भोग तहँ विन भामिनि कहँ भोग ॥ भामिनि छूटे जग छुटै जग छूटे सुखयोग १५ जोई जोई जो करै अहंकारके साथ ॥ स्नान दान तप होम जप निष्फल जानौ नाथ १६ तोटकछंद। जियमांझ अहंपद जो दमिये। जिनहीं जिनहीं गुणश्री रमिये ॥ तिनहीं तिनहीं लखि लोभ डसै । पटतंतुनि उंदुर ज्यों तरसै १७ ॥ यामें स्त्रीव्यवहारकृत पीड़ा कहत हैं जहां भामिनि स्त्री है तहाई दुःख- | रूपी संसार को भोग है सो भामिनि जब छुटै तब संसार छूटै तवहीं सुख | को योग है अर्थ दुःखमयी संसार को बंधन दुराशादि सम स्त्रीहू है १५ यामें अहंकार को व्यवहार कहत हैं अहंकार के साथ जो करिये सो नि- फल होत है १६ ताही अहंकार को जो काहू प्रकारसों दमिये दूरिये तो जिन जिन मिथ्याभावनादि गुबनसों श्री जो द्रव्य है तासों रमिये अर्थ द्रव्यको प्राप्त हूजियत है तिन तिन गुणनको देखिकै लोभ जो है सो जीव को डसत है कादत है अर्थ काहूको अनुत्तम कर्मसों द्रव्य पावत देखि लोभ जीवको प्रेरत है कि यह कर्म करौ जामें द्रव्यलाभ होइ अहंकारहीन पाणी योग्यायोग्य को विचार नहीं करत जा प्रकार द्रव्य मिलै सोई ऊंच नीच कर्म करत है इति भावार्थः लोभ कैसे डसत है जैसे पट वस्त्रके तंतु कहे सूत्रन को उंदुर कहे मूषक तरसै कहे काटत है आशय कि जैसे मूषक पटतंतुन को वृथा काटत है कछु ताको काम नहीं है तैसे लोभ वृथा जीव को सतावत है १७॥