पृष्ठ:रामचंद्रिका सटीक.djvu/२४९

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२४८ रामचन्द्रिका सटीक । विजयछंद ॥ दान सयाननिके कलपद्रुम टूटत ज्यों ऋण ईशके मांगे । सूखत सागरसे सुख केशव ज्यों दुख श्रीहरि के अनुरागे॥ पुण्य विलात पहारनसे पल ज्यों अघ राघव की निशि जागे । ज्यों द्विजदोषते संतति नाशति त्यों गुण भाजत लोभके आगे १८ ॥ सो लोभ कैसो है ताको व्यवहार कहत हैं जैसे ईश महादेव हैं तिनके मांगे ते ऋण टूटि जात है अर्थ जब महादेव सों मांगौ तव महादेव एती द्रव्य देते हैं जामें केतेऊ बड़ो ऋण होइ सो दूरि होत है तैसे ता लोभ के आगे दान धौ सयानन के जे कल्पद्रुम कल्पतरु हैं ते टूटि जात हैं अर्थ लोभसों दानको अभिलाष नशिजात है औ उचितानुचित करिबे में जो सयान चातुरी है सो नहीं रहति औ जैसे श्रीहरि जे विष्णु है तिनके अनु- रागे सों भक्ति किये सों सागर ऐसे संसार दुःख सूखत हैं तैसे ता लोभ के आगे जो जीवके सागर से सुख सो सूखि जात हैं अर्थ लोभवश इत उत प्राणी धायो धायो फिरत है धन पुत्र कलत्रादिको सुख नहीं करन पावत औ जैसे राघवकी निशिको राघवसंबंधी व्रत दिन रामनवमी आदिकी निशि में पलहू भरि जागेते अघ पाप बिलात हैं तैसे लोभ के आगे पहारन से बड़े बड़े पुण्य विलात हैं अर्थ लोभसों ऐसे ब्रह्मद्रव्यहरणादि पातक प्राणी करत हैं जासों केतेऊ बड़े पुण्य हो तौ नशि जात हैं यामें केशव को रामोक्ति में अपनी उक्ति को भ्रय है औ जैसे ब्रह्मदोष ते संतति जो वंश है सो नशि जात है तैसे लोभ के आगे अनेक गुण भागत हैं अर्थ अनेक गुणको त्याग करि प्राणी लोभवश जन जनसों दीन होत हैं " गुणशत- मप्यर्थिता हरति इति प्रमाणात् " १८॥ दान दया शुभशील सखा विझुकै गुण भिक्षुक को बिझु- कावें । साधु सुधी सुरभी सब केशव भाजि गई भ्रम भूरि भ- जावें ॥सजनसंग बछेरू डरें विडरें वृपभादि प्रवेश न पावें। बार बड़े अघबाघ बँधे उरमंदिर बालगोविंद न आवें १६ ॥ या पापको व्यवहार कहत हैं उररूपी जो मंदिर घर है ताके बार कहे द्वारमें बड़े अघ पापरूपी अनेक बाघ बँधे हैं तासों उर में जीव को