पृष्ठ:रामचंद्रिका सटीक.djvu/२५१

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२५० रामचन्द्रिका सटीक । विजयाछंद ॥ कौन गने चहि लोकतरीन विलोकि वि- लोकि जहाजन बोरै। लाजविशाल लता लपटी तनधीरज सत्यतमालनि तोरे ॥ चकता अपमान अयान अलाभ भुजंग भयानक कृष्णा । पाटु बड़ो कहुं धाटुन केशव क्यों तरिजाइ तरंगिनि तृष्णा २२ ॥ फेरि कैसी है तृष्णा सो कहत कि ऐसी तृष्णारूपी जो तरंगिणी नदी है सो कोनी तरहसे जीवसों तरि कहे उतरि जाइ कैसी है तृष्णा नदी कि यहि लोक कहे मृत्युलोककी जे तरी कहे नौका हैं तिन्हें कौन गनै अर्थ तिनको तो बोरिही देति है " स्त्रियां नौस्तरणिरतरिरित्यमरः" इहां तरी पदते मनुष्यदेह जानो अर्थ मनुष्यदेह को प्राप्त छैक तौ जीव तृष्णाको पार पावतही नहीं है मनुष्यदेह में तृष्णा कैसेहू नहीं मिटति इत्यर्थः वि- लोकि क्लिोकि कहे ढूंढ़ि ढूंढ़ि जहाजको बोरति है यहां जहाज पदते देव- शरीर जानो अर्थ देवताहू तष्णाको पार नहीं पावत अथवा लोकतरी पद ते लोकव्यवहारयुक्त मनुष्यदेह जानौ औं जहाजपदते संसारको त्याग किये जे योगीजन हैं तिनके शरीर जानो अर्थ योगीजन तृष्णा को पार नहीं पावत संसारविशिष्ट प्राणिनकी कहां गिनती है लाजरूपी जो विशाल लता है सो लपटी है तनमें जिनके ऐसे धीर औ सत्यरूपी तमाल वृक्ष हैं तिन्हें अति वेगसों तोरै कहे उखारि डारति है नदीहू कूलके वृक्ष उखारि डारति है इहां तमालपद उपताल है तासों वृक्षमात्र जानो अर्थ तृष्णा सों लाज औ सत्य प्राणी को दूर जात है औ वञ्चकता कहे छल औ अप- मान श्री अयान अज्ञानता औ अलंभ कहे याचित वस्तुकी अमाप्तिरूपी जे भुजंग सर्प हैं तिनकरिकै अतिभयानक है नदीहू में सर्प रहत हैं अर्थ पंचकतादि जे चारों हैं तिनसों युक्त सदा तृष्णा रहति है औ कृष्णा कहे श्यामरूपा है श्री जाको पाटु बड़ो है अंत नहीं पाइयत औ दुहूं कूलमें कहूं घाट नहीं है जहां विश्रामहूं पावै २२ ॥ पैरत पाय पयोनिधि में मन मूढ़ मनोज जहाज चढ़ोई। पेलतऊ न त जड़ जीव जऊ बड़वानल क्रोध डढ़ोई ॥ भूठतरंगिनि में उरझै सुइते पर लोभप्रवाह बढ़ोई । बूड़त