पृष्ठ:रामचंद्रिका सटीक.djvu/३०१

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३०४ रामचन्द्रिका सटीक । रथसे लसंत ॥ अतिझुलमुलीन सह झलकलीन । फहरात पताका जनु नवीन १४ ॥ १२ मुक्ताफलनयुक्त अर्थ मुक्ताफल सहित नासिका भूषणयुक्त फल सहित आनंदलतिकाको कै मानों शशि जो चन्द्र हैं सो सब शूल जो दुःख है | ताको दूरि करत है आनंदलतिकासम नासिकाभूषण हैं फूलसम मोती हैं शशिसम मुख है १३ भालमें तिलक कहे टीका मणिजटित ऊर्ध्वपुंडू होत है सो जानों रूप कहे सौंदर्यरूपी जो नृपराज है सो रविके व्रत में लीन हैकै रविके अर्थ आकाश को दीप दीन्हों है जे प्रथम शीशफूल कह्यो है तेई रवि हैं केशयुक्त शीश अाकाश है औ मणिजटित ताटक कहे ढार श्रुति में श्रवण में लसत हैं तेमानों रविके एकचक्र कहे एक पहियाके रथसे हैं रवि को रथ एकही पहियाको है औ झुलझली जे पातनामा कर्णभूषण हैं तिनकी झलक शोभा सह कहे साथ अर्थ ताटंकन के साथ लीन है युक्त है मानों ताही एकचक्र रथके पताका हैं अथवा रूपनृप जो है सो रविको दीप दीन्दों है औ या प्रकार के पनाकालों युक्त एकचक्र रथहू दीन्हों सम- पण करयो है इत्यर्थः १४ ॥ अतितरुण अरुण द्विज युति लसति । निज दाडिम बीजनको हसति ॥ संध्याहि उपासत भूमिदेव । जनु वाकदेव की करत सेव ॥ शुभ तिनके सुख मुखके विलास । भयो उपवन मलयानिल निवास १५ चौपाई॥ मृदु मुसकानि लता मन ह । बोलत बोल फूलसे झरें।तिनकी वाणी सुन मनहारि । वाणी वीणा धरेउ उतारि १६ लटकै अलिक अ- |लक चीकनी । सूक्षम अमल चिलक सों सनी ॥ नकमोती दीपकद्युति जानि । पाठी रजनीही उनमानि १७ ॥ तरुण कहे नवीन द्विजदंत मानों भूमिदेव ब्राह्मण हैं ते मुखमें बास किये वाकदेव जो सरस्वती हैं ताकी सेवा करत हैं ते ब्राह्मण संध्यासमयमों संध्या की उपासना करत हैं इहां दांतन की औ ब्राह्मणनकी द्विजशब्द सों साम्य है संध्यासम दांतनकी अरुणयुति है दांतनपक्ष वाकदेव जिह्वा जानौ १५